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________________ चउत्थगाहाए अत्थपरूवणा ६ १२७. पदेसग्गं पुण समयं पडि असंखेज्जगुणहीणं होयण उदीरिज्जदि, पदेसुदओ गाणावरणादिकम्माणं उवसंतकसायगुणसेढिवसेण विसेसहीणो एदम्हि विसये होदि । मोहणीयस्स पुण पढमसमयसुहुमसांपराइयगुणसेढिपाहम्मेणासंखेज्जगुणो चेव भवदि । एवमंतोमुहुत्तकालं सव्वमसंखे० गुणाए सेढीए. लोभसंजलणपदेसग्गं वेदेमाणो किट्टीओ विसेसाहियवड्डीए किट्ठीअणुभागं च अणंतगुणवड्डीए अणुहवंतो जाधे चरिमसमयसुहुमसापराइयो जादो ताघे पढमसमयसुहुमसंपराइयेण कदगुणसेढी आवलियमेत्ता अस्थि, सेसबहुभागाणं गलिदत्तादो । ताघे णाणावरणादिकम्माणं द्विदिबंधपमाणं चढमाणसुहुमसांपराइयपढमट्ठिदिबंधादो दुगुणमेत्तं होइ ति दट्ठन्छ । १२८. एवमेदीए परूवणाए समद्धमणुफालिय तदो किट्टीवेदगद्धाए मीणाए से काले अणियट्टिबादरसांपराइयगुणट्ठाणमोइण्णो त्ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तावयारो * किट्टीवेदगडाए गवाए पढमसमयषादरसांपराइयो जादो । अपूर्व ग्रहण किया गया असंख्यातवां भाग विशेष अधिक होता है। इस प्रकार सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयतक जानना चाहिए। विशेषार्थ-यहाँ जो कृष्टियाँ वेदी जाती हैं उनका खुलासा करनेके साथ प्रथम समयसे द्वितीयादि समयोंमें उत्तरोत्तर जो विशेष अधिक अपूर्व कृष्टियां वेदी जाती हैं उन्हें स्पष्ट किया गया है। ६१२७. प्रदेशपुंज तो प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणा हीन होकर उदीरित होता है। तथा ज्ञानावरणादि कर्मोंका प्रदेश उदय उपशान्तकषायसम्बन्धी गुणश्रोणिके कारण इस स्थानपर विशेष हीन होता है । परन्तु मोहनीय कर्मका प्रदेशउदय तो प्रथम समयमें की गई सूक्ष्मसाम्पराय गुणश्रेणिके प्राधान्यके कारण असंख्यातगुणा ही होता है । इस प्रकार समस्त अन्तर्मुहुर्त कालतक असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे लोभसंज्वलनके प्रदेशपुंजको वेदता हुआ कृष्टियोंको विशेष अधिक वृद्धिरूपसे और कृष्टिगत अनुभागको अनन्तगुणी वृद्धिरूपसे अनुभवता हुआ जब अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक हो जाता है, तब सूक्ष्मसाम्परायिकके द्वारा की गई गुणश्रोणि आवलिमात्र शेष रहती है, क्योंकि शेष बहुभागका गलन हो जाता है। उस समय ज्ञानावरणादि कर्मोंके स्थितिबन्धका प्रमाण चढ़नेवाले सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके प्रथम समयमें हुए स्थितिबन्धके प्रमाणसे दुगुणा हो जाता है ऐसा प्रकृतमें जानना चाहिये। ६१२८. इस प्रकार श्रेणिकी प्ररूपणाकी अपेक्षा अपने काल तक उसका पालन करते हुए कृष्टिवेदककालके झीन हो जानेपर तदनन्तर समयमें अनिवृत्तिबादरसाम्पराय गुणस्थानमें अवतरित हुआ इस बातका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * कृष्टिवेदककालके व्यतीत हो जानेपर प्रथम समयवर्ती बादरसाम्परायिक हो गया। १. ता प्रतौ अणियट्टिबादरसुहुमसांपराइयगुणहाणपवेसि (सं०) इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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