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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $ १२५. एत्थ जो लोभवेदगद्धा त्ति वुत्ते ओदरमाणस्स जो सुहुमबादरलोभवेदगकालो सो सव्वो चैव घेत्तव्वो । तस्स पढमतिभागो णाम सुहुमसांपराइयकालो, एहि काले स चैव किट्टीणमसंखेज्जा भागा उदिण्णा । पुव्वं किट्टीकरणद्धाए कदाणं किट्टीणं हेडिमोबरिमअसंखेज्जदिभागं मोत्तूण पुणो मज्झिमकिट्टीसरूवेण असंखेज्जदिभागो ताहे उदीरिदो चि वृत्तं होइ । संपहि सुहुमसांपराइयद्धाए पढमादिसमएसु अवट्ठिदपमाणाओ वेदेमाणो किं सव्वेसु चैव समएस अवट्ठिदपमाणाओ वेदेदि आहो विसेसाहियवड्डी हाणीए [इ] त्ति पुच्छाए णिरारेगीकरणट्टमुत्तरसुत्तारंभो— ५४ * पढमसमए उदिण्णाओ किट्टीओ थोवाओ, विदियसमए उदिण्णाओ किट्टीओ विसेसाहियाओ । $ १२६. सव्वसुडुमसां पराइयद्धाए विसेसाहियवडीए किट्टीणमुदयो जहा चडमाणो विसोहिवसेण विसेसहाणीए किडीओ वेदेदि एवमोदरमाणगो वि संकिलेसवसेण असंखेज्जभागवडीए समयं पडि किट्टीओ वेदेदि ति एसो एत्थ भावत्थो । तदो पढमसमय हि वेदिदकिट्टीणमुदयजहण्णकिट्टि पहुडि असंखेज्जदिभागमेत्ता हेट्ठा मोत्तूण पुणो पुव्विल्लकिडीणमुक्कस्सकिट्टिप्पहुडि उवरिमपुव्वमसंखे ० भागं वेदेदि । हेट्ठा मु[3]क्क० असंखे ०भागादो उवरि अपुव्वभागाइद असंखे० भागो विसेसाहिओ भवदि । एवं दव्वं जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमयो ति । $ १२५. यहाँ पर जो 'लोभवेदककाल' ऐसा कहनेपर उतरनेवालेका जी सूक्ष्मबादर लोभवेदककाल है वह पूरा ही लेना चाहिये । उसका प्रथम त्रिभाग यह सूक्ष्मसाम्पराय कालकी संज्ञा है । इस पूरे कालके भीतर कृष्टियोंका असंख्यात बहुभाग उदीर्ण हो जाता है । पहले कृष्टिकरणके कालमें की गई कृष्टियोंमेंसे अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंको छोड़कर मध्यम कृष्टिरूपसे असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियाँ उस समय उदीरित होती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब सूक्ष्मसाम्परायिकके कालमें प्रथमादि समयों में कृष्टियोंका वेदन करनेवाला क्या सभी समयोंमें अवस्थित परिणाम प्रमाण कृष्टियोंका वेदन करता है या विशेष अधिक वृद्धिरूपसे या विशेष अधिक हानिरूपसे उनका वेदन करता है ऐसी पृच्छा होनेपर निःशंक करनेके लिए आगे के सूत्रका आरम्भ करते हैं * प्रथम समयमें उदीर्ण हुई कृष्टियाँ स्तोक हैं, दूसरे समय में उदीर्ण हुई कृष्टियाँ विशेष अधिक होती हैं । $ १२६. सूक्ष्मसाम्परायके पूरे कालके भीतर विशेष अधिक वृद्धिरूपसे कृष्टियोंका उदय होता है । जिसप्रकार चढ़नेवाला जीव विशुद्धिवश विशेष हानिरूपसे कृष्टियों को वेदता है उसी प्रकार उतरनेवाला जीव भी संक्लेशवश असंख्यात भागवृद्धिरूपसे प्रत्येक समयमें कृष्टियों को वेदता है यह यहाँ भावार्थ है । इसलिए प्रथम समय में वेदी गई कृष्टियोंमेंसे उदयरूप जघन्य कृष्टिसे लेकर नीचे असंख्यातवें भागमात्र कृष्टियोंको छोड़कर पुनः पूर्वकी कृष्टियोंमेंसे उत्कृष्ट कृष्टिसे लेकर उपरिम अपूर्व असंख्यातवें भागको वेदता है । नीचे उत्कृष्ट असंख्यातवें भागसे ऊपर
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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