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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ११०. सुणु कारणमिदि सिस्ससंबोहणवयणमेदं । एवं सिस्ससंबोधणं कादूण तदो अद्धाक्खएण सो लोमे पडिवदिदो होइ ति कारणणिद्देसो कओ। एदस्स भावत्थो-जइ वि एसो उवसंतकसायो अवट्ठिदपरिणामो तो वि तस्स उवसंतकसायभावेणावट्ठाणकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो चेव, तत्तो परमुवसमपज्जायस्सावट्ठाणासंभवादो । तम्हा उवसंतद्धाक्खएण सुणु एवं' सिस्ससंबोधणं कादण सो पडिवददि त्ति घेत्तव्वं, कारणंतरस्साणुवलंभादो। एवं पडिवदमाणो लोभकसाए चेव पडिवददि, सुहुमसांपराइयगुणट्ठाणे पडिवदमाणयस्स कसायंतरासंभवादो त्ति । एवमेदस्स पडिवादस्स कारणं परूविय संपहि तमेव पडिवादं पबंधेण परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * तं परूवइस्सामो। ___$ १११. तमेदमणंतरणिहिट्ठमद्धाक्खयणिबंधणं पडिवादमेत्तो पबंधेण वत्तइस्सामो त्ति वुत्तं होइ । तं जहा-- 8 पढमसमयमुहुमसांपराएण तिविहं लोभमोकड़ियूण संजलणस्स उदयादिगुणसेढी कदा । 5 ११२. एदस्स सुत्तस्सत्यो वुच्चदे । तं जहा-उवसामणद्धाक्खएण पडिवदमाणो उवसंतकसायो सुहुमसांपराइयगुणट्ठाणे चेव णिवददि, तत्थ पयारंतरा ६११०. 'कारण सुनो' यह शिष्यको सम्बोधन करनेवाला वचन है। इस प्रकार शिष्यको सम्बोधन करके उसके बाद अद्धाक्षयसे वह लोभमें प्रतिपतित होता है इस प्रकार कारणका निर्देश किया है । इसका भावार्थ-यद्यपि यह उपशान्तकषाय जीव अवस्थित परिणामवाला होता है तो भी उसका उपशान्तकषायभावसे अवस्थानकाल अन्तर्मुहूर्तमात्र ही है। उसके बाद उपशम पर्याय का अवस्थान असंभव है। इसलिए उपशान्तकालके क्षयसे 'सुनो' इस प्रकार शिष्यको सम्बोधित करके कहते हैं कि वह गिरता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि इसके गिरनेका दूसरा कोई कारण नहीं उपलब्ध होता। इस प्रकार गिरनेवाला जीव लोभकषायमें ही गिरता है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें गिरनेवालेके अन्य कोई कषायका होना असम्भव है। इस प्रकार इस प्रतिपातके कारणका कथन करके अब उसी प्रतिपातको सूत्रद्वारा प्ररूपण करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं। * उस प्रतिपातकी प्ररूपणा करेंगे। $ १११. अनन्तर पूर्व निर्दिष्ट अद्धाक्षयनिमित्तक उस प्रतिपातको आगेके प्रबन्ध द्वारा बतलायेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है, वह जैसे * प्रथम समयमें सूक्ष्मसाम्पराय जीवने तीन प्रकारके लोभका अपकर्षण करके संज्वलनलोभकी उदयादि गुणश्रेणि की । ६११२. इस सूत्रका अर्थ कहते हैं वह जैसे-उपशामना कालका क्षय होनेसे गिरनेवाला उपशान्तकषाय जीव सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें ही गिरता है, क्योंकि वहाँ कोई दूसरा प्रकार सम्भव १. ता प्रतौ मेदं (?) एवं इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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