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________________ भाग-14 चउत्थगाहाए अत्थपरूवणा संभवादो। ताधे चेव पढमसमयसुहुमसांपराइयभावे वट्टमाणो तिविहं लोभं विदियट्ठिदीदो ओकड्डदि, तक्कालमेव तिण्हं लोमाणं उवसामणक्खयदंसणादो। एवमोकड्डियण गुणसेढिणिक्खेवं कुणमाणो लोभसंजलणस्स उदयादिगुणसेडिणिक्खेवं करेदि, वेदिज्जमाणस्स तस्स पयारंतरासंभवादो। किंपमाणो एदस्स गुणसेढिणिक्खेवो त्ति आसंकाए इदमाह-- * जा तस्स किट्टी लोभवेदगद्धा तदो विसेसुत्तरकालो गुणसेढिणिक्खेवो । ६११३. 'तस्स' परिवदमाणसुहमसांपरायइस्स जा किट्टी लोभवेदगद्धा अंतोमुहुत्तावच्छिण्णपमाणा तत्तो. विसेसुत्तरपमाणो एदस्स गुणसेढिणिक्खेवो दट्टब्बो । एत्थ विसेसपमाणमावलियमेत्तमिदि घेत्तव्वं । दुविहस्स वि लोहस्स एवडिओ चेव गुणसेढिणिक्खेवो होदि, किंतु उदयावलियबाहिरे चेव णिक्खिप्पदे । किं कारणं ? तेसिमवेदिज्जमाणाणमुदयावलियम्भंतरे णिक्खेवासंभवादो त्ति जाणावणद्वमिदं सुत्तं * दुविहस्स लोहस्स तत्तियो नेव णिक्खेवो, गवरि उदयावलियाए जत्यि । 5 ११४. गयत्थमेदं सुत्तं । संपहि णाणावरणीयादिकम्माणमेत्थतणो गुणसेढिणिक्खेवो किंपमाणो त्ति आसंकाणिरारेगीकरणद्वमिदमाहनहीं है । और उसी समय प्रथम समयके सूक्ष्मसाम्पराय परिणाममें विद्यमान होकर द्वितीय स्थितिमेंसे तीन प्रकारके लोभको अपकर्षित करता है, क्योंकि उसी समय तीन लोभोंके उपशामनाका क्षय देखा जाता है। इस प्रकार अपकर्षण करके गुणश्रेणिमें निक्षेप करता हुआ लोभसंज्वलनका उदयादि गुणश्रेणिनिक्षेप करता है, क्योंकि वेदी जानेवाली उसमें दूसरा कोई प्रकार सम्भव नहीं है । इसके गुणश्रोणिनिक्षेपका कितना प्रमाण है ऐसी आशंका होनेपर इस सूत्रको कहते हैं * जो उसका कृष्टिगत लोभका वेदनकाल है उससे कुछ अधिक कालप्रमाण गुणश्रेणिनिक्षेप है। ६ ११३. उसके अर्थात् गिरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिक जीवका जो कृष्टिगत लोभका वेदनकाल है वह अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण है, उससे कुछ अधिक कालप्रमाण इसका गुणश्रेणिनिक्षेप जानना चाहिये । यहाँ विशेषका प्रमाण एक आवलिमात्र ग्रहण करना चाहिये । अन्य दो प्रकारके लोभका भी इतना ही गुणश्रेणिनिक्षेप होता है। किन्तु उसे उदयावलिके बाहर ही निक्षिप्त करता है, क्योंकि नहीं वेदी जानेवाली उन प्रकृतियोंका उदयावलिके भीतर निक्षेप होना सम्भव नहीं है ऐसा ज्ञान करानेके लिए यह सूत्र आया है * दो प्रकारके लोभका उतना ही निक्षेप होता है। इतनी विशेषता है कि उनका निक्षेप उदयावलिके भीतर नहीं होता। $ ११४. यह सूत्र गतार्थ है । अब ज्ञानावरणादि कर्मोंका यहां होनेवाला निक्षेप किस प्रमाण
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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