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________________ उवसामणाक्खएण पडिवादपरूवणा दट्ठव्वाणि । एत्थेदेसिमंतरावरणविहाणं भणिदूण गेण्डियन्वं । तदो भवक्खएण पडवादो विहासिय समत्तो भवदि । संपहि उवसामणद्धाक्खएण जो पडिवादो तस्स विहासणमुत्तरो सुत्तपबंधो 1 ४७ * जो उवसामणक्खएण पडिवददि तस्स विहासा । $ १०८. जो खलु उवसामणद्धाक्खएण पडिवददि तस्सेदाणि विहासा कीरदि ति भणिदं होदि । तत्थ ताव पडिवादकारणगवेसणडमुवरिमं पबंधमाह - * केण कारणेण पडिवददि अवट्ठिदपरिणामो संतो । $ १०९. एवं पुच्छंतस्साभिप्पायो, भवक्खएण पडिवादो ताव सकारणो खीणाउअस्स असंजदभावेण कसाएसु पडिवादं मोत्तूण उवसंतकसायभावेणावद्वाणविरोहादो । एदम्मि पुर्ण पडिवादे ण किंचि कारण मुवलब्भदे । ण ताव परिणामहाणी तक्कारणं, अवट्ठिदपरिणामस्स उवसंतकसायस्स परिणामहाणीए असंभवादो | ण च कारणंतरमेत्थ संभवइ, विचारिज्जमाणस्स तस्साणुवलद्धीदो । तम्हा अवट्ठिदपरिणामो संतो एसो उवसंतकसाओ केण कारणेण पडिवददि त्ति पुच्छा कदा होइ । संपहि एदिस्से पुच्छाए णिरागीकरणमुत्तरमुत्तमोइण्णं * सुणु कारणं, जधा अद्धाखरण सो लोभे पडिवदिदो होइ । जानने चाहिए । यहाँ इन कर्मके अन्तरको भरनेके विधानको कहकर ग्रहण करना चाहिए । इसलिए भवक्षय से प्रतिपातकी प्ररूपणा समाप्त हुई । अब उपशामनाद्धाके क्षयसे जो प्रतिपात होता है उसका प्रतिपादन करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * जो उपशामनाक्षयसे उतरता है उसकी विभाषा करते हैं । $ १०८. जो उपशामनाके कालके क्षय होनेसे उतरता है उसकी इस समय प्ररूपणा करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उसमें सर्वप्रथम प्रतिपातके कारणकी गवेषणा करनेके लिए आगे सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * अवस्थित परिणामवाला होता हुआ किस कारण से गिरता है । $ १०९. ऐसा पूछनेवालेका अभिप्राय है कि भवक्षयसे होनेवाला प्रतिपात तो सकारण होता है, क्योंकि क्षीण आयुवाले जीवका असंयतभावसे कषायोंमें प्रतिपातको छोड़कर उपशान्तकषायरूपसे रहनेका विरोध है । परन्तु इस प्रतिपात में कोई कारण नहीं उपलब्ध होता । परि मोंकी हानि तो उसका कारण हो नहीं सकता, क्योंकि उपशान्तकषाय अवस्थित परिणामवाला होता है, इसलिए उसके परिणामोंकी हानि होना असम्भव है । और यहाँ कोई दूसरा कारण सम्भव नहीं है, क्योंकि विचार करनेपर वह उपलब्ध नहीं होता । इसलिए अस्थित परिणामवाला होकर यह उपशान्तकषाय जीव किस कारणसे गिरता है यह यहाँ पृच्छा की गई है । अब इस पृच्छाके होने पर निःशंक करनेके लिए आगेका सूत्र आया है * कारण सुनो। यथा— अधाक्षयसे लोभमें प्रतिपतित होता है ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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