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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे मूलपयडीसु अट्ठण्हमेदेसिं करणाणं मग्गणा कदा तहा एत्थ वि एदाणि चेव अट्ठकरणाणि उत्तरपयडीणं पादेक्कणिरुरुंमणं कादूण पुध पुध विहासियवाणि, मूलपयडीसु विहासिदाणमट्टण्हं करणाणमुत्तरपयडीसु कालमस्सियूण विहासढे एदस्स गाहापुन्वद्धस्स समोइण्णत्तादो ति । एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । अदो चेव कममुन्लंघियूण तदियगाहाविहासावसरे चउत्थगाहा विहासिदा । ६९३. संपहि कधमेदं गाहापुव्वद्धसुचं कालेण विसेसियूण उचरपयडीसु करणाणमुवसंताणुवसंतभावपरूवयमिदि एवंविहासंकाए णिरारेगीकरणट्ठमेत्थ किंचि अवयवत्थपरामरसं कस्सामो । 'केवचिरमुवसामिज्जदि' एवं भणिदे अंतरकरणे णिट्ठिदे संते केसि कम्माणं कदमं करणं केवचिरेण कालेण उवसामिज्जदि चि, एदेण णवुसयवेदादिपयडीसु पडिबद्धाणं सव्वेसिमेव करणाणमवसामणाए कालविसेसो पुच्छिदो होइ । 'संकमणमुदीरणा च केवचिरं' एदेण वि सुत्तावयवेण तेसिं चेव करणाणं संकमणोदीरणादीणमणुवसंतावत्था कालविसेसिदा पुच्छिदा होदि, तेसिमप्पणो सरूवेण पवुनी अणुवसंतभावो तेसिं चेव सगसरूवेणापवुची उवसंतभावो त्ति विवक्खियत्तादो । $ ९४. संपहि एत्थ पयदत्थमग्गणाए कीरमाणाए मूलपयडिभंगाणुसारेण सव्वेसिं कम्माणं करणवोच्छेदावोच्छेदो अणुगंतव्वो। तं जहा-णसयवेदस्स ताव आलम्बन लेकर मूल प्रकृतियोंमें इन आठ करणोंका अनुसन्धान किया उसी प्रकार यहाँ भी उत्तर प्रकृतियोंमेंसे एक-एक प्रकृतिको विपक्षित करके इन्हीं आठ करणोंका पृथक्-पृथक् व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि मूल प्रकृतियोंमें व्याख्यात आठ करणोंका उत्तर प्रकृतियोंमें कालका आलम्बन लेकर ब्याख्यान करनेके लिए इस गाथाके पूर्वाधका अवतार हुआ है। यह इस सूत्रका भावार्थ है। और इसीलिए उल्लंघन करके तीसरी गाथाके व्याख्यानके समय चौथी गाथाका व्याख्यान किया। ६९३. अब यह गाथासूत्रका पूर्वार्ध कालको विशेषण बनाकर उत्तर प्रकृतियोंमें करणोंके उपशान्त और अनुपशान्त अवस्थाका प्ररूपण किस प्रकार करता है इस प्रकार ऐसी आशंकाके होनेपर निःशंक करनेके लिए कुछ अवयवार्थका परामर्श करते हैं-'कितने कालके भीतर उपशामना की जाती है। ऐसा कहने पर अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न होनेपर किन कर्मोका कौनसा करण कितने कालके द्वारा उपशमाया जाता है इसप्रकार इस वचन द्वारा नपुंसक वेद आदि प्रकृतियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी करणोंका उपशामनामें लगनेवाला कालविशेष पूछा गया है। 'संक्रमण और उदीरणा कितने काल तक होते हैं इस प्रकार इस सूत्र वचन द्वारा उन्हीं संक्रमण और उदीरणा आदि करणोंकी काल सहित अनुपशान्त अवस्था कितने काल तक रहती है यह पूछा गया है। उन करणोंका अपने स्वरूपसे प्रवृत्त रहना अनुपशान्त अवस्था है और उन्हीं करणोंका अपने स्वरूपसे प्रवृत्त नहीं रहना उपशान्त अवस्था है यह यहाँ विवक्षित है। ६९४. अब यहां पर प्रकृत अर्थको गवेषणा करनेपर मूलप्रकृतियोंके भंगके अनुसार सभी कर्मोके करणोंका विच्छेद और अविच्छेद जानना चाहिए । यथा-नपुंसकवेदके तो अनिवृत्ति
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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