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________________ तदियगाहाए अत्थपरूवणा अणियट्टिकरणपढमसमए अप्पसत्थउवसामणादीणि तिण्णि करणाणि णट्ठाणि चि, तेसिं सा चेव पसत्थकरणोवसामणा, अप्पसत्थभावेणणुवसंताणं तेसिं पसत्थभावेणोवसंतभावसिद्धीए पडिबंधाभावादो। सेसाणि करणाणि अप्पणो सव्वोवसमट्ठाणे गट्ठाणि। णवरि सेढीए णसयवेदस्स बंधणकरणं णात्थि, तदो चेव उक्कड्डणाकरणं पि णत्थि त्ति वत्तव्वं । एवमित्थिवेदस्स वि । एवं छण्णोकसायाणं पि वत्तव्वं, विसेसाभावादो । एवमट्ठकसायाणं पि वत्तव्वं । णवरि अप्पप्पणो सव्वोवसामणाविसयो जाणियन्यो । एवं पुरिसवेदचदुसंजलणाणं पि जाणिदूण पयदत्थमग्गणा कायव्वा । अथवा तिण्हं संजलणाणं बंधणा० उक्कड्डणा० संकामण. ओकड्डणा० उदय० उदीरणा० जाव अणियट्टि ति । उवसामणा० णिकाचणा० णिवत्ती. जाव अपुव्वकरणचरिमसमयो त्ति । संतं पुण जाव उवसंतकसायो ति । एवं पुरिसवेदस्स । लोहसंजलणस्स बंधणा० उक्कड्डणा० संकमणा० जाव अणियट्टि त्ति । ओकड्डणा० उदीरणाकरणं च जाव सुहुमसांपराइयसमयाहियावलिया त्ति । उदओ संतं च जाव सुहुमखवगचरिमसमओ त्ति । अधवा संतं जाव उवसंतकसायो ति । उवसामणा० णिकाचणा० णिवत्ती० अपुवकरणचरिमसमओ त्ति । संपहि आभिणिबोहियणाणावरणादीणं अप्पणो मूलपयडिभंगो जाणिय वत्तव्यो । तदो एदीए मग्गणाए समत्ताए गाहापुव्वद्धस्स विहासा समत्ता । संपहि गाहापच्छद्धविहासणमुत्तरो सुत्तपबंधोकरणके प्रथम समयमें अप्रशस्त उपशामना आदि तीन करण नष्ट हो जाते हैं, इसलिए उनकी वही प्रशस्त करणोपशामना है, क्योंकि अप्रशस्त भावसे अनुपशान्त हुए उनकी प्रशस्तभावसे उपशान्त भावकी सिद्धिमें प्रतिबन्धका अभाव है। शेष करण अपने सर्वोपशमके स्थानमें नष्ट हो जाते हैं। इतनी विशेषता है कि श्रेणीमें नपुंसकवेदका बन्धनकरण नहीं है और इसीलिए उसका उत्कर्षणाकरण भी नहीं है ऐसा कहना चाहिए। इसी प्रकार स्त्रीवेदका भी कथन करना चाहिए। इसी प्रकार छह नोकषायोंका कथन करना चाहिये, क्योंकि उनके कथनसे इनके कथनमें कोई भेद नहीं है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण आदि आठ कषायोंका भी कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपने-अपने सर्वोपशामनाका स्थान जान लेना चाहिए। इसी प्रकार पुरुषवेद और चार संज्वलनोंके प्रकृत अर्थको जानकर गवेषणा करनी चाहिए। अथवा तीन संज्वलनोंके बन्धनकरण, उत्कषंणाकरण संक्रामण करण, अपकर्षणाकरण, उदय और उदीरणाकरण अनिवृत्तिकरण तक होते हैं। तथा उपशामनाकरण, निकाचनाकरण और निधत्तीकरण अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक होते हैं। परन्तु सत्त्व उपशान्तकषाय गुणस्थान तक होता है। इसी प्रकार पुरुषवेदका जानना चाहिए । लोभसंज्वलनके बन्धनकरण, उत्कर्षणाकरण और संक्रमणाकरण अनिवृत्तिगुणस्थान तक होते हैं। अपवर्तनाकरण और उदीरणाकरण सूक्ष्मसाम्परायमें एक समय अधिक एक आवलि काल रहने तक होते हैं। उदय और सत्त्व सूक्ष्मसाम्परायक्षपकके अन्तिम समय तक होते हैं। अथवा सत्त्व उपशान्त गुणस्थानके अन्तिम समय तक होता है। उपशामनाकरण, निकाचनाकरण और निधत्तीकरण अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक होते हैं। आभिनिवोधिक ज्ञानावरण आदिका भंग अपनी मूल प्रकृतियोंके अनुसार जानकर कहना चाहिए। इस प्रकार इस मार्गणाके समाप्त
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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