SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तदियगाहापुव्वद्धपरूवणा ६९०. गाहापुबद्धविहासाए चेव गाहापच्छद्धो वि विहासिदो त्ति तदो एसा चेव गाहा सव्वा सपुव्वपच्छद्धा विहासिदा दट्ठव्वा त्ति वुत्तं होइ। कुदो ? जाणि चेव करणाणि जत्थ वोच्छिण्णाणि ताणि चेव तत्थ उवसंताणि जाणि च ण वोच्छिण्णाणि ताणि तत्थाणुवसंताणि, ति पुव्वद्धविहासाए चेव पच्छद्धस्स वि गयत्थत्तदंसणादो। ९१. अहवा मूलुत्तरपयडीणं साहारणभावेण एदम्मि करणे उवसंते सेसकरणाणि किमुवसंताणि आहो अणुवसंताणि त्ति सण्णियाससरूवेण करणाणमुवसंतभावगवेसणहमेसो गाहापच्छद्धो समोइण्णो ति वक्खाणेयव्वं । ण च एवं संते अणंतरोवरिमगाहाए विहासिज्जमाणेण अत्थेणेदस्स पुणरुत्तभावो आसंकणिज्जो, एदेण सूचिदत्थस्स तत्थ कालेण चिसेसियण परूवणाए तदोसासंभवादो। एवं तदियगाहमुन्लंषियण चउत्थगाहाए अत्थो विहासिदो। संपहि तदियगाहापुव्वद्धविहासणट्ठ मुत्तरसुत्तं भणइ * केच्चिरमुवसामिज्जदि संकमणमुदीरणा च केवचिरं ति एदम्हि सुत्ते विहासिज्जमाणे एवाणि चेव अढकरणाणि उत्तरपयडीणं पुध पुध विहासियव्वाणि । ९२. एदम्हि तदियगाहापुव्वदे विहासिज्जमाणे जहा चउत्थगाहमस्सियण ६९०. गाथाके पूर्वार्धके व्याख्यात होनेपर ही गाथाका उत्तरार्ध भी व्याख्यात हो जाता है, इसलिए पूर्वार्ध और उत्तरार्धके साथ यह पूरी गाथा ही व्याख्यात जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि जो भी करण जिस स्थान पर व्युच्छिन्न हो गए वे वहाँ ही उपशान्त हो गए और जो व्युच्छिन्न नहीं हुए वे वहां अनुपशान्त रहे आये इस प्रकार पूर्वार्धके व्याख्यानमें हो उत्तरार्धको गतार्थता देखी जाती हैं। $९१. अथवा मूल और उत्तर प्रकृतियोंके साधारणरूपसे इस करणके उपशान्त होनेपर शेष करण क्या उपशान्त होते हैं या अनुपशात्त रहते हैं इस प्रकार सन्निकर्षस्वरूपसे करणोंके उपशान्त भावकी गवेषणा करनेके लिए यह गाथाका उत्तरार्ध आया है ऐसा व्याख्यान करना चाहिए। और ऐसा होनेपर अनन्तर उपरिम गाथामें प्ररूपित किए जानेवाले अर्थके साथ इसके पुनरुक्तपनेकी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इस द्वारा सूचित किये गए अर्थकी वहाँ कालको विशेषण बनाकर प्ररूपणा करनेपर उक्त दोष सम्भव नहीं रहता। इस प्रकार तीसरी गाथाको उल्लंघन करके चौथी गाथाके अर्थका व्याख्यान किया। अब तीसरी गाथाके पूर्वार्धका व्याक्यान करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं। * कितने काल तक कौन प्रकृति उपशमाई जाती है तथा संक्रम और उदीरणा कितने काल तक होते हैं इस प्रकार इस सूत्रके व्याख्यात होनेपर उत्तर प्रकृतियोंके ये ही आठ करण पृथक्-पृथक् व्याख्यान किये जाने चाहिये । $ ९२. इस तीसरी गाथाके पूर्वार्धका व्याख्यान करनेपर जिस प्रकार चौथी गाथाका
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy