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________________ ३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे कथं मूलपयडीणं संकमणाकरणस्स संभवो, तासु परत्थाणसंकतीए अणन्भुवगमादो त्ति णासंकणिज्जं, उत्तरपयडिदुवारेण तासि पि तदुववत्तीय विरोहाभावादो । संपहि एत्थ परिवज्जिदाणं आउअवेदणीयाणं केचियाणि करणाणि होंति चि आसंकाए णिण्णयविहाणट्ठमिदमाह - * आउगस्स ओवट्ठणाकरणमत्थि सेसाणि सत्तकरणाणि णत्थि । $ ८४. आउअस्स ताव ओवट्टणाकरण मेक्कं चैव एत्थ संभवइ, सेससत्तकरणाणमेत्थ संभवाणुवलंभादो । तं जहा - णिरयाउअस्स बंघण करणमुक्कडणाकरणं च मिच्छाइट्ठिम्मि अत्थि । उवरिमगुणट्ठाणेसु णत्थि । ओवट्टणकरणमुदओदीरणाउवसमणिकाचणाणिधत्तीकरणं च संतं जाव असंजदसम्मादिट्ठि त्ति, संकामणाकरणं णत्थि चैव । एत्थ संतोदयाणं परूवणा पसंगागदो ति णासंबद्धा, तिरिक्खाउअस्स बंधण ० • उक्कडण० जाव सासणसम्माइट्ठि चि, संकामणा णत्थि । सेसाणं करणाणं संतोदयाणं संजदासंजदम्मि वोच्छेदो, तत्तो परं तदसंभवादो । मणुसाउअस्स बंधण० उक्कडुण० जाव असंजदसम्भाइट्ठिति, उदीरणा जाव पमत्तो चि, ओकडणा जाव सजोगिचरिमसमओ ति, उदओ संतं च जाव अजोगिचरिमसमओ त्ति, उवसामणा० णिकाचणा० णिधतीकरणं जाव अपुव्व चरिमसमओ त्ति, संकामणा णत्थि । शंका- मूल प्रकृतियोंका संक्रमण करण कैसे सम्भव है, क्योंकि उनमें परस्थान संक्रम नहीं स्वीकार किया गया है ? समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा उनका भी संक्रम बन जानेमें विरोधका अभाव है । अब यहाँ जिनका निषेध किया गया है ऐसे आयु कर्म और वेदनीय कर्मके कितने करण होते हैं ऐसी आशंकाका निराकरण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं - * आयुकर्मका अपवर्तनाकरण है शेष सात करण नहीं हैं । $ ८४. आयुकर्मकी तो अपवर्तना एक ही यहाँ सम्भव है, शेष सात करण यहाँ सम्भव नहीं हैं। जैसे— नरकायुका बन्धनकरण और उत्कर्षणाकरण मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें होते हैं, उपरिम गुणस्थानोंमें नहीं होते । अपवर्तन, उदय, उदीरणा, उपशम, निकाचना और निघत्तीकरण जहाँ तक सत्त्व है ऐसे असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं । इसका संक्रमण करण होता ही नहीं । यहाँ सत्त्व और उदयका कथन प्रसंगसे आ गया है, इसलिए असम्बद्ध नहीं है । तिर्यञ्चायुका बन्धन और उत्कर्षण करण सासादन गुणस्थान तक होता है । इसकी संक्रमणा होती ही नहीं । शेष पाँच करणों तथा सत्त्व और उदयका संयतासंयत गुणस्थानमें विच्छेद हो हो जाता है, क्योंकि उसके आगे तिर्यञ्चायुका असत्त्व होनेसे वे करण सम्भव नहीं हैं । मनुष्यायुके बन्धनकरण और उत्कर्षणकरण असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक सम्भव हैं । उदीरणा प्रमत्त गुणस्थान तक होती है । अपकर्षण करण सयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है । उदय और सव अयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं । उपशमना करण, निकाचना करण और निधत्तीकरण अपूर्व
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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