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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
कथं मूलपयडीणं संकमणाकरणस्स संभवो, तासु परत्थाणसंकतीए अणन्भुवगमादो त्ति णासंकणिज्जं, उत्तरपयडिदुवारेण तासि पि तदुववत्तीय विरोहाभावादो । संपहि एत्थ परिवज्जिदाणं आउअवेदणीयाणं केचियाणि करणाणि होंति चि आसंकाए णिण्णयविहाणट्ठमिदमाह -
* आउगस्स ओवट्ठणाकरणमत्थि सेसाणि सत्तकरणाणि णत्थि ।
$ ८४. आउअस्स ताव ओवट्टणाकरण मेक्कं चैव एत्थ संभवइ, सेससत्तकरणाणमेत्थ संभवाणुवलंभादो । तं जहा - णिरयाउअस्स बंघण करणमुक्कडणाकरणं च मिच्छाइट्ठिम्मि अत्थि । उवरिमगुणट्ठाणेसु णत्थि । ओवट्टणकरणमुदओदीरणाउवसमणिकाचणाणिधत्तीकरणं च संतं जाव असंजदसम्मादिट्ठि त्ति, संकामणाकरणं णत्थि चैव । एत्थ संतोदयाणं परूवणा पसंगागदो ति णासंबद्धा, तिरिक्खाउअस्स बंधण ० • उक्कडण० जाव सासणसम्माइट्ठि चि, संकामणा णत्थि । सेसाणं करणाणं संतोदयाणं संजदासंजदम्मि वोच्छेदो, तत्तो परं तदसंभवादो । मणुसाउअस्स बंधण० उक्कडुण० जाव असंजदसम्भाइट्ठिति, उदीरणा जाव पमत्तो चि, ओकडणा जाव सजोगिचरिमसमओ ति, उदओ संतं च जाव अजोगिचरिमसमओ त्ति, उवसामणा० णिकाचणा० णिधतीकरणं जाव अपुव्व चरिमसमओ त्ति, संकामणा णत्थि ।
शंका- मूल प्रकृतियोंका संक्रमण करण कैसे सम्भव है, क्योंकि उनमें परस्थान संक्रम नहीं स्वीकार किया गया है ?
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा उनका भी संक्रम बन जानेमें विरोधका अभाव है । अब यहाँ जिनका निषेध किया गया है ऐसे आयु कर्म और वेदनीय कर्मके कितने करण होते हैं ऐसी आशंकाका निराकरण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
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* आयुकर्मका अपवर्तनाकरण है शेष सात करण नहीं हैं ।
$ ८४. आयुकर्मकी तो अपवर्तना एक ही यहाँ सम्भव है, शेष सात करण यहाँ सम्भव नहीं हैं। जैसे— नरकायुका बन्धनकरण और उत्कर्षणाकरण मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें होते हैं, उपरिम गुणस्थानोंमें नहीं होते । अपवर्तन, उदय, उदीरणा, उपशम, निकाचना और निघत्तीकरण जहाँ तक सत्त्व है ऐसे असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं । इसका संक्रमण करण होता ही नहीं । यहाँ सत्त्व और उदयका कथन प्रसंगसे आ गया है, इसलिए असम्बद्ध नहीं है । तिर्यञ्चायुका बन्धन और उत्कर्षण करण सासादन गुणस्थान तक होता है । इसकी संक्रमणा होती ही नहीं । शेष पाँच करणों तथा सत्त्व और उदयका संयतासंयत गुणस्थानमें विच्छेद हो हो जाता है, क्योंकि उसके आगे तिर्यञ्चायुका असत्त्व होनेसे वे करण सम्भव नहीं हैं । मनुष्यायुके बन्धनकरण और उत्कर्षणकरण असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक सम्भव हैं । उदीरणा प्रमत्त गुणस्थान तक होती है । अपकर्षण करण सयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है । उदय और सव अयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं । उपशमना करण, निकाचना करण और निधत्तीकरण अपूर्व