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________________ चउत्थगाहाए अत्थपरूवणा देवाउअस्स बंधण. उक्कड्डणा जाव अप्पमत्तो त्ति, उदयोदीरणा च जाव असंजदसम्माइट्टि त्ति, ओकडण० संतं च जाव उक्संतकसायो त्ति, उवसामणा० णिकाचणा० णिवत्तीकरणं जाव अपुवकरणोवसामगचरिमसमओ त्ति । संकामणा गस्थि । तदो आउअमूलपयडीए अणियट्टिकरणपविठ्ठपढमसमए ओवट्टणाकरणं एक्कं चेव, ण सेसाणि त्ति सिद्धं, संतोदयाणमट्ठसु करणेसु अविवक्खियत्तादो। ___* वेदणीयस्स बंधणाकरणमोवट्टणाकरणमुवदृणाकरणं संकमणाकरणं एदाणि चत्तारि करणाणि अत्थि सेसाणि चत्तारि करणाणि णत्थि । ६८५. एदस्स मुत्तस्सत्थो वुच्चदे । तं जहा-सादावेदणीयस्स बंधण० ओकड्डणाकरणं च जाव सजोगिचरिमसमओ त्ति, उक्कड्डणा० जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमओ त्ति, उदीरणा० संकमणा जाव पमत्तसंजदो त्ति, उवसामणा० णिकाचणा० णिवत्ती. जाव अपुव्वकरणचरिमसमओ ति। उदओ संतं च जाव अजोगिचरिमसमयो ति । आसादावेदणीयस्स बंधण. उक्कड्ण. उदीरणाकरणं च जाव पमत्तोत्ति, संकमणा० जाव सुहुम० चरिमसमओ त्ति, ओक्कडणा' जाव सजोगि त्ति, उवसामणा० णिकाचणा० णिवत्तीकरणं च अपुवकरणचरिमसमओ त्ति, उदयो संतं च अजोगिचरिमसमओ ति। तदो वेदणीयमलपयडीए एदम्मि विसए बंधणकरणमो करण गुणस्थानके अन्तिम समय तक होते हैं। इसकी संक्रमणा नहीं होती। देवायुके बन्धन करण और उत्कर्षणकरण अप्रमत्तगुणस्थान तक होते हैं। उदय और उदीरणाकरण असंयतसम्यग्दृष्टि गणस्थान तक होते हैं। अपकर्षणकरण और सत्त्व उपशान्तकषाय गणस्थान तक होते हैं। तथा उपशामनाकरण निकाचनाकरण और निधत्तीकरण अपूर्वकरणगुणस्थानके अन्तिम समय तक होते हैं। इसकी संक्रमणा नहीं होती । इसलिए आयु मूल प्रकृतिका अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करनेके प्रथम समयमें एक अपवर्तनाकरण ही है, शेष करण नहीं है यह सिद्ध हुआ, क्योंकि सत्त्व और उदय आठों करणोंमें अविवक्षित हैं। * वेदनीयकर्मके बन्धनकरण, अपवर्तनाकरण, उद्वर्तनाकरण और संक्रमणाकरण ये चार करण होते हैं । शेष चार करण नहीं होते। $ ८५. इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह जैसे-सातावेदनीयके बन्धनकरण और अपकर्षणकरण सयोगिकेवलीके अन्तिम समय तक होते हैं। उत्कर्षणकरण सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समय तक होता है । उदीरणाकरण और संक्रमणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होता है । उपशामनाकरण, निकाचनाकरण और निधत्तीकरण अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक होते हैं। उदय और सत्त्व अयोगिकेवलीके अन्तिम समय तक होते हैं। असातावेदनीयके बन्धनकरण, उत्कर्षणकरण और उदीरणाकरण प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं। संक्रमणाकरण सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समय तक होता । अपकर्षणाकरण सयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है। उपशामनाकरण, निकाचना १. आदर्शप्रतौ ता प्रतौ च उक्कड्डणाकरणे इति पाठः। २. आदर्शप्रतौ ता०प्रतौ च उक्कड्डणा इति पाठः।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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