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________________ भाग-14 ३३ चउत्थगाहाए अत्थपरूवणा ६८१. एवमट्टविहं करणं । एवमेदाणि अट्ठकरणाणि एत्थ विवक्खियाणि त्ति भणिदं होदि । एदेसिं करणाणं लक्खणपरूवणा सुगमा ति णेह पुणो पवंचिज्जदे गंथगउरवभएण । संपहि एदेसु करणेसु केसि कम्माणं कम्हि उद्देसे कं करणं वोच्छिज्जदि कं वा ण वोच्छिण्णं इदि एदमत्थविसेसं मूलपयडीओ अस्सियूण परूवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ __* एदेसिं करणाणं अणियहिपढमसमए सव्वकम्माणं पि अप्पसत्थउवसामणाकरणं णिवत्तीकरणं णिकाचणाकरणं च वोच्छिण्णाणि । ६८२. एदेसिमणंतरणिहिट्ठाणमट्टण्हं करणाणं मझे अणियट्टिपढमसमए ताव सव्वेसिं कम्माणं णाणावरणादीणं अप्पसत्थउवसामणादीणि तिण्णि करणाणि वोच्छिण्णाणि, अणियट्टिकरणपरिणामपाहम्मेण तेसिं करणाणं तिव्वसंकिलेसणिबंधणाणं एत्थ वोच्छेदसिद्धीए बाहाणुवलंभादो । संपहि सेसकरणेसु केसि कम्माणं केत्तियाणि करणाणि होति ति जाणावणट्ठमुत्तरो सुत्तणिबंधो * सेसाणि ताधे आउगवेदणीयवज्जाणं पंच वि करणाणि अस्थि । ६८३. तदवत्थाए आउगवेदणीयवज्जाणं छण्हं मूलपयडीणं सेसाणि बंधणोदीरणोकड्डुक्कड़णसंकमणाकरणाणि च पंच वि होति, तेसिमज्ज वि वोच्छेदाभावादो । ६८१. इस प्रकार करण आठ प्रकारके हैं। इस प्रकार ये आठ करण यहाँपर विवक्षित हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इन करणोंके लक्षणोंकी प्ररूपणा सुगम है, इसलिए यहाँपर ग्रन्थके गौरवको प्राप्त हो जानेके भयसे उनका विस्तार नहीं किया जाता है। अब इन करणोंमेंसे किन कर्मोंके किस स्थानपर कौन करण व्युच्छिन्न होता है और कौन करण व्युक्छिन्न नहीं होता है इसका प्ररूपण करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * इन करणोंमेंसे अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें सभी कोंके अप्रशस्त उपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरण व्युच्छिन्न हो जाते हैं। ८२. इन अनन्तर पूर्व निर्दिष्ट करणोंमेंसे अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें सर्वप्रथम सब ज्ञानावरणादि कर्मोंके अप्रशस्त उपशामना आदि तीन करण व्युच्छिन्न हो जाते हैं। ये तीनों करण तीव्र संक्लेशके निमित्तसे होते हैं इसलिए यहाँ पर अनिवृत्तिकरणके माहात्म्यसे तीव्र संक्लेशनिमित्तक उन करणोंकी व्युच्छित्तिकी सिद्धि में कोई बाधा नहीं पाई जाती। अब किन कर्मोके शेष करणोंमेंसे कितने करण होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * आयु कर्म और वेदनीय कर्मको छोड़कर वहाँ शेष पांचों ही करण होते हैं। ६८३. उस अवस्थामें आयुकर्म और वेदनीय कर्मको छोड़कर छह मूल प्रकृतियोंके शेष बन्धन, उदीरणा, अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण करण पाँचों ही होते हैं, क्योंकि उनका अभी भी विच्छेद नहीं हुआ है।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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