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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे कममुलंघिय परूवणा आढविज्जदि चि गासंकणिज्जं, चउत्थगाहत्थविहासाए चेव तदियगाहत्थस्स वि पाएण गयत्थभावपदसणटुं तहा परूवणावलंबणादो।
* के करणं वोच्छिन्नदि अव्वोच्छिण्णं च होइ कं करणं ति विहासा।
$ ७९. एदस्स ताव चउत्थगाहापुन्वद्धस्स अत्थविहासा कीरदि ति भणिदं होइ । अप्पसत्थउवसामणादिकरणेसु कसायउवसामगस्स कम्मि अवत्थाविसेसे कदम करणं वोच्छिज्जदि कदमं वाण वोच्छिज्जदि ति एदस्स अत्थविसेसस्स णिच्छयकरणट्ठमेदस्सावयारो ।
* तं जहा।
$ ८०. सुगममेदं पुच्छावक्कं । एवं च पुच्छाविसईकयपयदगाहापुव्वद्धविहासणं कुणमाणो तत्थ ताव करणभेदाणं चेव संखाए सह णामणिदेसकरणद्वमुत्तरसुत्तमाह
* अट्टविहं ताव करणं, जहा अप्पसत्यउवसामणाकरणं णिवत्तीकरणं णिकाचणाकरणं बंधकरणं उदीरणकरणं ओकड्डणाकरणं उक्कड्डणाकरणं संकामणकरणं च ८।
शंका-इस प्रकार क्रमको उल्लंघन करके आगेकी प्ररूपणा किसलिए आरम्भ की जा रही है।
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि चौथी गाथाकी विशेष व्याख्या करनेसे ही तीसरी गाथाका अर्थ भी प्रायः गतार्थ हो जाता है यह दिखलानेके लिए उस प्रकार प्ररूपणाका अवलम्बन लिया है।
__ * 'कौन करण व्युच्छिन्न होता है और कौन करण अव्युच्छिन्न रहता है। इसकी विभाषा की जाती है।
७९. सर्व प्रथम इस चौथी गाथाके पूर्वार्धकी अर्थविभाषा करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अप्रशस्त उपशामना आदि कारणोंमेंसे कषायोंकी उपशमना करनेवाले जीवके किस अवस्था-विशेषमें कौन करण व्युच्छिन्न होता है और कौन करण व्युच्छिन्न नहीं होता है इस अर्थ विशेषका निश्चय करनेके लिये इस सूत्रका अवतार हुआ है।
* वह जैसे।
$ ८०. यह पृच्छावाक्य सुगम है। इस प्रकार पृच्छाके विषय किये गये प्रथम गाथाके पूर्वार्धका व्याख्यान करते हुए सर्व प्रथम वहाँ करणभेदोंका ही संख्याके साथ नाम निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* करण आठ प्रकारके हैं। यथा-अप्रशस्त उपशामनाकरण, निधत्तीकरण, निकाचनाकरण, बन्धनकरण, उदीरणाकरण, अपकर्षणकरण, उत्कर्षणकरण और संक्रमणकरण।