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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ४९. संपहि माणसंजणस्स वुच्चंदे ! तं जहा–अंतरकरणे समत्ते पच्छा छण्णोकसायदुविहकोहदव्वं गुणसंकमेण कोहसंजलणस्सुवरि संकामेदि । णवरि एदं दव्वं अप्पहाणं, सव्वधादिपडिभागियत्तादो। किंतु कोहसंजलणादो अधापवत्तसकमेण माणसंजलणस्स उवरि संकममाणदव्वं पहाणं । तेण समयं पडि माणसंतकम्मं विसेसाहियं होदण गच्छदि । पुणो एवं माणसरूवेण वड्डिदण द्विददव्वादो मायासरूवेण गच्छमाणदव्वं पि समयं पडि विसेसाहियं भवदि जाव कोहसंजलणचिराणसंतकम्मस्स माणसंजलणस्सुवरि संकमे थक्के पुणो आवलियमेत्तकालमुवरि गंतूण तन्विसयो थक्को त्ति । एत्तो प्पहुडि विसेसहीणसंकमो भवदि जाव सगसव्वोवसमचरिमसमओ त्ति । गवरि णवकबंधसंकमी पुव्वं व चउन्विहवाड्डि-हाणि-अवट्ठाणेहिं दट्ठन्वो । एवं मायासंजलणस्स वि एसा मग्गणा जाणिय कायन्वा । लोहसंजलणस्स पुण अंतरकरणादो हेहा चेव सेसकसाय-णोकसायगुणसंकमपडिग्गहवसेण विसेसाहियो संकमविसयो अणुगंतव्वो, पयदविसये तस्स संकमाभावादो। F५०. डिदिसंकमो अणुदइल्लाणं अवट्टिदो चेव होदि, तत्थ विदियट्ठिदीए पयट्टमाणस्स संकमस्स वड्डिहाणीणमणुवलंभादो । वेदिज्जमाणं पुण समयं पडि विसेसहीणो चेव संकमो जायदे, तत्थ पढमट्ठिदिए णिरंतरं गलमाणोवलंभादो । णवरि वि करना चाहिये। ४९. अब मानसंज्वलनका कहते हैं। वह जैसे-अन्तरकरण समाप्त होनेपर पश्चात् छह नोकषाय और दो प्रकारके क्रोधके द्रव्यको गणसंक्रमके द्वारा क्रोधसंज्वलनके ऊपर संक्रमित करता है । इतनी विशेषता है कि यह द्रव्य अप्रधान है, क्योंकि यह सर्वघाति द्रव्यका प्रतिभाग होकर प्राप्त हुआ है। किन्तु क्रोधसंज्वलनमेंसे अधःप्रवृत्तसंक्रमण द्वारा मानसंज्वलनके ऊपर संक्रमित होनेवाला द्रव्य प्रधान है, उस द्वारा मानसंज्वलनका द्रव्य प्रत्येक समयमें विशेष अधिक होता जाता है। पुनः इस प्रकार मानरूपसे वृद्धिको प्राप्त होकर स्थित हुए द्रव्यमेंसे मायारूपसे प्राप्त होनेवाला द्रव्य भी प्रत्येक समयमें तबतक विशेष अधिक होता जाता है जबतक क्रोधसंज्वलनके चिरकालीन सत्कर्मका मानसंज्वलनके ऊपर संक्रम पूरा होनेके बाद आवलिमात्र काल ऊपर जाकर उसका विषय समाप्त होता है। यहांसे लेकर सर्वोपशमके अन्तिम समयतक विशेषहीन संक्रम होता है। इतनी विशेषता है कि नवकवन्धका संक्रम पहलेके समान चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितरूपसे जानना चाहिये। इसी प्रकार मायासंज्वलनकी भी गवेषणा करके जान लेनी चाहिये । लोभसंज्वलनको तो अन्तरकरणसे पूर्व ही शेष कषायों और नोकषायके गुणसंक्रमसन्बन्धी प्रतिग्रहके कारण विशेष अधिक संक्रमका विषय मानना चाहिये, क्योंकि प्रकृत स्थानपर उसके संक्रमका अभाव है। ६५०. अनुदयरूप प्रकृतियोंका स्थितिसंक्रम अवस्थित हो होता है. क्योंकि उनकी द्वितीय स्थितिसम्बन्धी प्रवृत्त हुए संक्रममें वृद्धि-हानि नहीं पाई जाती। तथा जो प्रकृतियाँ वेदी जाती हैं उनका प्रति समय विशेषहीन ही संक्रम होता है, क्योंकि उनकी प्रथम स्थिति निरन्तर गलतो
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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