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________________ संकममुदीरणा च कदिभागो एदस्स गाहावयवस्स परूवणा १९ 1 ४८. संपहि केसि कम्माणं केत्तियं कालमेसो विसेसाहियसंकमो होदिति भग्गणं कस्साम । तं जहा - पुरिसवेदस्स ताव इत्थिवेदं चरिमगुणसंकमेण पडिच्छियूण जाव आवलियमेत्तकालो गच्छ ताव विसेसाहिओ चैव संकमो होदि । तत्तो परं विसेसहीणं चेव भवदि जाव सगसव्वोवसामणाचरिमसमओ ति । णवरि चिराणसंतकम्ममुवसामेयण णवकबंधमुवसामेमाणस्स पढमसमए असंखेज्जगुणहाणी होण तदो दुसमयूणदोआवलिमेत्तणवकबंधसंकमो जोगविसेसमस्सियण चव्विहाए बड्डीए हाणीए अवट्टिदसरूवेण च पयहृदि त्ति वत्तव्वं, णाणासमयपबद्धावलंबणेण तत्थ तहाभावोववत्तीए । कोहसंजलणस्स वि सत्तणोकसाएहिं सह दुविहको हकसायस्स जाव संकमो ताव विसेसाहिओ चैव संकमो होदि । पुणो छण्णोकमायचरिमगुणसंकमे परिच्छिदे पच्छा आवलियमेत्तकालं विसेसाहियसंकमो होदूण थक्कदि । एत्तो पहुडि जाव कोहसंजलणो सव्वोवसमं गच्छदि ताव माणस्सुवरि विसेसहीणकमेण संकमो भवदि । कारणमेत्थ सुगमं । णवरि कोहसंजलणणवकबंधसंकमो पुव्वं व चदुवड्डि-हाणि-अवट्ठिदसरूवेण पयट्टदि त्ति घेत्तव्वं । परन्तु जो बध्यमान प्रकृतियां हैं उनका जब तक गुणसंक्रम नहीं होता तब तक उनका भी प्रदेशपुञ्ज अधःप्रवृत्त संक्रमक द्वारा विशेष अधिक ही संक्रमित होता है । कारण कि जो बध्यमान पुरुष वेद आदि मेंसे विवक्षित एक प्रकृति है उसका गुणसंक्रमके द्वारा अन्य कृतिरूप प्रदेश संक्रम भी होता है और उसकी प्रथम स्थिति सम्भव है, इस लिये उसका असंख्यातगुणी गुणश्रेणिरूपसे प्राप्त हुआ प्रदेशपुञ्ज प्रत्येक समयमें उदयमें भी दिया जाता है, यतः यहाँपर संक्रमित होनेवाले द्रव्यसे प्रत्येक समयमें गलनेवाला द्रव्य बहुत होता है, इसलिए उक्त व्यवस्था बन जाती है । शेष कथन सुगम है । प्रदेशपुञ्ज विशेष हीन ही होता है, क्योंकि प्रत्येक समय में विशेषहीन होता जाता है । $ ४८. अब किन कर्मोंका कितने काल तक यह विशेष अधिक संक्रम होता है इसकी मागंणा करते हैं । वह जैसे - पुरुषवेदका तो, स्त्रीवेदको अन्तिम गुणसंक्रमके द्वारा ग्रहण करके, जब तक एक आवलि काल जाता है तब तक विशेष अधिक ही संक्रम होता है। उसके बाद अपनी सर्वोपशमनाके अन्तिम समय तक विशेष हीन ही संक्रम होता है । इतनी विशेषता है कि पुराने सत्कर्मको उपशमा कर नवकबन्धका उपशम करनेवाले जीवके प्रथम समय में असंख्यात गुणहानि होकर उसके बाद दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्धका संक्रम योग विशेषकी अपेक्षा चार प्रकारकी वृद्धि, चार प्रकारकी हानि और अवस्थितरूपसे प्रवृत्त होता है ऐसा यहाँ कहना चाहिये, क्योंकि नाना समयप्रबद्धों की अपेक्षा वहीं उक्त संक्रम उस प्रकारसे बन जाता है । क्रोधसंज्वलनका भी, सात नोकषायोंके साथ दो प्रकारके क्रोधकषायका जब तक संक्रम होता है; तब तक विशेष अधिक ही संक्रम होता है । पुनः छह नोकषायोंके अन्तिम गुणसंक्रमके प्राप्त होनेके बाद एक आवलि कालतक विशेष अधिक संक्रम होता रहता है । पुनः यहाँसे लेकर जब तक क्रोधसंज्वलनका सर्वोपशम होता है तब तक मान कषायके ऊपर विशेष हीन क्रमसे संक्रम होता है । यहाँ कारण सुगम है । इतनी विशेषता है कि क्रोधसंज्वलनके नवकबन्धका संक्रम पहले के समान चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितरूपसे प्रवृत्त होता है ऐसा यहाँ ग्रहण
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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