SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संकममुदीरणा च कदिभागो एदस्स गाहावयवस्स परूवणा २१ संजलणपुरिसवेदाणं चिराणसंतकम्ममुवसामिय णवकबंधमुवसामेमाणस्स संधीए सइमस खेज्जगुणहाणी होदण तदो अवट्टिदसंकमो होदि त्ति दट्टव्वं । ___$ ५१. अणुभागसंकमो वि सव्वासिं मोहपयडीणमेदम्मि विसये अवविदो चेव दहव्यो। तं कथं ? जहण्णफड्डयप्पडुडि अभवसिद्धि० अणंतगुण-सिद्धाणमणंतभागमेतफड्डयरयणाए सरिसधणियपमाणं पि एत्तियं चेव होदि । पुणो एदेसिमसंखेज्जदिमागं समये० संकामिज्जदि तेणावहिदो चेव संकमो भवदि । सोदयाणं पढमहिद्दीए गलमाणाये अणवट्टिदो संकमो किण्ण जायदे ? ण, पढमद्विदिफड्डयाणं विदियट्ठिदिअणुभागफड्डएहिं सह सरिसधणियाणं गलणे वि तत्थाणयट्ठिदसंकमाणुवलद्धीदो। खंडए पादिदे अणंतगुणहाणी किण्ण होदि त्ति णामंकणिज्जं, अंतरकरणे कदे मोहणीयस्स द्विदिअणुभागखंडयघादाणभुवगमादो । णवरि तिण्णिसंजलणपुरिसवेदाणं णवकबंधाणुमागसंकमो समयं पडि अणतगुणहीणकमेण पयदि त्ति घेत्तव्वं । रहती है । इतनी विशेषता है कि संज्वलन कषाय और पुरुषवेदके चिरकालीन सत्कर्मको उपशमा कर नवकबन्धका उपशम करनेवाले जीवके सन्धिमें एकबार असंख्यात गुणहानि होकर तदनन्तर अवस्थित संक्रम होता है ऐसा जानना चाहिये। विशेषार्थ-यहाँ अनुदयरूप प्रकृतियोंकी एक आवलिप्रमाण प्रथम स्थिति होती है और उदयवाली प्रकृतियोंकी अन्तमुहूर्तप्रमाण प्रथम स्थिति होती है तथा चार संज्वलन और पुरुषवेद ये यथासम्भव बन्धप्रकृतियाँ भी हैं, इसलिये संक्रमकी उक्त व्यवस्था बन जाती है। ५१. सम्पूर्ण मोहप्रकृतियोंका इस स्थलपर अनुभागसंक्रम भी अवस्थित ही जानना चाहिये। शंका-वह कैसे ? समाधान-जघन्य स्पर्धकसे लेकर अभव्योंसे अनन्तगुणे तथा सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण स्पर्धकोंकी रचनामें सदश धनवालोंका प्रमाण भी उतना ही होता है। पुनः इनका असंख्यातवां भाग प्रत्येक समयमें संक्रमित होता है, इसलिए अवस्थित ही संक्रम होता है। - शंका-सोदय प्रकृतियोंकी प्रथम स्थितिके गलित होते समय अनवस्थित संक्रम क्यों नहीं होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि द्वितीय स्थितिके अनुभागसम्बन्धी स्पर्धकोंके साथ समान धनवाले प्रथम स्थितिके स्पर्धकोंके गलनेपर भी वहाँ अनवस्थित संक्रम नहीं उपलब्ध होता। शंका-अनुभागकाण्डकका घात करते समय अनन्त गुणहानि क्यों नहीं होती है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि अन्तरकरण करनेके बाद मोहनीयकर्मका स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात नहीं पाया जाता। इतनी विशेषता है कि तीन संज्वलन और पुरुषवेदके नवकबन्धका अनुभागसंक्रम प्रत्येक समयमें अनन्त गणहीन प्रवृत्त होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। विशेषार्थ-जघन्य स्पर्धकसे लेकर जितने अनुभागस्पर्धक है वे अभव्योंसे अनन्तगुणे या सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण होते हैं। उनमें सदृश धनवालोंका प्रमाण भी उतना ही है और यहाँ इनके असंख्यातवें भागका प्रत्येक समयमें संक्रम होता है, इसलिये प्रकृतमें अवस्थित संक्रम बन जाता है। तथा जो सोदय प्रकृतियाँ हैं उनमें भी प्रथम स्थितिके स्पर्धक द्वितीय स्थितिके स्पर्धकोंके म
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy