SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे विदियगाहाए जहावसरपत्तमत्थविहासणं कुणमाणो उवरिमं पबंधमाह * कविभागुवसामिज्जदि संकममुदीरणा च कविभागेत्ति विहासा । 5 ३८. एसा बिदियगाहा सपुवपच्छद्धा गवुसयवेदादिपयडीणं समयं पडि उवसामिज्जमाणपदेसग्गस्स द्विदि-अणुभागाणं च पमाणावहारणटुं पुणो तप्पसंगणेव बज्झमाण-वेदिज्जमाणसंकामिज्जमाणोवसामिज्जमाणद्विदि-अणुभागपदेसाणमप्पाबहुअविहाणं च समोइण्णं । एवं परूविदसंबंधाए एदिस्से गाहाए अत्थविहासा एण्हिमहिकीरदि त्ति एदेण सुत्तेण जाणाविदं । * तं जहा। 5 ३९. सुगममेदं पुच्छावक्कं । तत्थ ताव 'कदिभागुवसामिज्जदि' त्ति एदस्स पढमावयवस्स अत्थविहासणडमुवरिमं पबंधमाढवेइ *ज कम्ममवसामिज्जदि तमंतोमहत्तण उवसामिज्जदि। जस्स जं पढमसमए उवसामिज्जदि पदेसग्गं तं थोवं। विदियसमए उवसामिज्जदि पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । एवं गंतण चरिमसमए पदेसग्गस्स असंखेज्जा भागा उपसामिज्जति । करके अब अवसरप्राप्त दूसरी गाथाके अर्थका व्याख्यान करते हुए आगेके प्रबन्धका कथन करते हैं * 'कितने भागको उपशमाता है और कितने भागका संक्रम और उदीरणा करता है इसकी विभाषा की जाती है। ३८. पूर्वार्ध और पश्चिमाके साथ यह दूसरी गाथा नपुंसकवेद आदि प्रकृतियोंसम्बन्धी प्रत्येक समयमें उपशमित होनेवाले प्रदेशजका कथन करनेके लिए तथा स्थिति और अनुभागके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए तथा उसी प्रसंगसे बन्धको प्राप्त होनेवाले, उदयको प्राप्त होनेवाले, संक्रमको प्राप्त होनेवाले और उपशमको प्राप्त होनेवाले स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आई है। इस प्रकार जिसके सम्बन्धको प्ररूपणा कर दी गई है ऐसी इस गाथाका विशेष व्याख्यान इस समय अधिकृत है यह इस सूत्रसे जाना जाता है। * वह जैसे । ६३९. यह पृच्छावाक्य सुगम है। वहाँ सर्व प्रथम कितने भागको उपशमाता है' गाथाके . इस प्रथम पादके अर्थकी विशेष व्याख्या करनेके लिए आगेके प्रबन्धको आरम्भ करते हैं * जिस कर्मको उपशमाया जाता है उसे अन्तर्मुहूर्तके द्वारा उपशमाता है। जिस कर्मका जो प्रदेशपुंज प्रथम समयमें उपशमाया जाता है वह प्रदेशपुंज सबसे थोड़ा है। दूसरे समय में जो प्रदेशज उपशमाया जाता है वह असंख्यातगुणा है। इस प्रकार जाकर अन्तिम समयमें प्रदेशजका असंख्यात बहुभाग उपशमाया जाता है।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy