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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे १७. एवमेदेण सुत्तेण करणोवसामणाए दुविहत्तं पदुप्पाइय तत्थ ताव देसकरणोवसामणाए सण्णाभेदपदुप्पायणमुत्तरसुत्तमाह देसकरणोवसामाणाए दुवे णामाणि-देसकरणोवसामणा त्ति वि अप्पसत्थउवसामणा त्ति वि। १८. तं जहा–संसारपाओग्गअप्पसत्थपरिणामणिबंधणत्तादो एसा अप्पसत्थोवसामणा ति भण्णदे। लेदिस्से तण्णिबंधणत्तमसिद्धं, अइतिव्वसंकिलेसवसेण अप्पसत्थोवसामणा-णिवत्त-णिकाचणकरणाणं पवुत्तिदंसणादो, खवगोवसमसेढीसु विसुद्धयरपरिणामेहिं विणासिज्जमाणाए एदिस्से अप्पसत्थभावसिद्धीए पडिबंधामावादो य । तदो एवंविहा जा अप्पसत्थउवसामणा सा चेव देसकरणोवसामणा ति भण्णदे, तिस्से तव्ववएससिद्धीए पडिबंधाभावादो। * एसा कम्मपयडीसु १९. कम्मपयडीओ णाम विदियपुव्वपंचमवत्थुपडिबद्धो चउत्थो पाहुडसण्णिदो अहियारो अस्थि । तत्थेसा देसकरणोवसामणा दट्टब्वा. सवित्थरमेदिस्से तत्थ परमाणुओंका भी अपकर्षण और उत्कर्षण आदि क्रिया प्रारम्भ हो जाती है, किन्तु दसवें गुणस्थानके अन्त तक सभी करण प्रशस्त उपशामना द्वारा उपशान्तभावको प्राप्त हो जाते हैं, इसलिए इसकी सर्वकरणोपशामना यह संज्ञा सार्थक है। दर्शनमोहनीयकी अपेक्षा उसे प्रशस्त करण परिणामों द्वारा उदयके अयोग्य करना मुख्य है। १७. इस प्रकार इस सूत्र द्वारा करणोपशामनाके दो भेदोंका कथन करके वहाँ सर्व प्रथम देशकरणोपशामनाकी संज्ञाके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * देशकरणोपशामनाके दो नाम हैं-देशकरणोपशामना और अप्रशस्त उपशामना। ६१८. यथा-संसारके योग्य अप्रशस्त परिणामनिमित्तक होनेसे यह अप्रशस्त उपशामना कही जाती है। यह संसारप्रायोग्य अप्रशस्त परिणामनिमित्तक होती है यह असिद्ध नहीं है, क्योंकि अतितीव्र संक्लेशके कारण अप्रशस्त उपशामना, निधत्त और निकाचनाकरणोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है । तथा क्षपकश्रेणि और उपशमश्रेणिमें विशुद्ध परिणामोंके निमित्तसे यह विनाशको प्राप्त हो जाती है, इसलिए इसका अप्रशस्तपनेकी सिद्धि में प्रतिबन्धका अभाव है। इसलिए इस प्रकारको जो अप्रशस्त उपशामना है वही देशकरणोपशामना कही जाती है, क्योंकि उसके उक्त संज्ञाकी सिद्धिमें प्रतिबन्धका अभाव है। विशेषार्थ-संसार अवस्थामें जो उपशामनाकरण होता है, एक तो वह अप्रशस्त परिणामोंको निमित्त कर होता है, दूसरे कुछ कर्मपरमाणुओंमें ही उसका व्यापार होता है, इस लिए इसके अप्रशस्त उपशामना या देशकरणोपशामना ये दोनों नाम सार्थक हैं। * यह कर्मप्रकृतिप्राभृतमें अवलोकनीय है।। $ १९. दूसरे पूर्वकी पांचवीं वस्तुका जो चौथा प्राभूत नामक अधिकार है उसकी कर्मप्रकृति
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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