SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वकरणोपशामनालक्षणप्ररूपणा $ १५. संपहि सव्वकरणोवसामणाए अत्थो बुच्चदे । तं जहा - सव्वेसिं करणाणवसामणा सव्वकरणोवसामणा । अप्पसत्थोवसामणा - णिधत्त - णिकाचणादिभेयभिण्णाणमदृण्हं करणाणमप्पप्पणो किरियाओ छंडेयूण पसत्थउवसामणाए जो सव्वोवसमोसा सव्वकरणोवसामणा त्ति वृत्तं होइ । जइ एवं सव्वकरणोवसामणाए ओकड्डणादि किरियाणमभावे तत्थ अप्पसत्थउवसामणा-णिधत्त-णिकाचणाकरणाणमत्थित्तसंभव पसज्ज, ओकड्डणादिकिरियाविरहस्स तब्भावोववत्तीदो । तहा च संते कधमेत्थ तेसिनुवसंतभावोति ? ण एस दोसो, अप्पसत्थोवसामणादिकरणपवे सपढमसमए चेन अच्चतुच्छिण्णसंताणाणं उवरि पवृत्तिसंभवाभावेण तत्थ तेसि मुवसंतभावसिद्धीदो ।' ७ $ १६. ण च सव्वोवसामणाए ओकङ्कणादिविरहो अप्पसत्थोवसामणादिकरणववएसारिहो, संसारावत्थाए ओकडणादिसंभवविसये केन्तियाणं पि परमाणूणं बज्नंतरंगकारणवसेण जो तन्भावपरमुहीभावो सो अप्पसत्थोसामणाकरणादिवव एसारिहो, न तदच्चतविच्छेदविसयो त्ति अणन्भुवगमादो, तम्हा एवंविहा सव्वकरणोवसामणा चिणिरवज्जं । $ १५. अब सर्वकरणोपशामनाका अर्थं कहते हैं । यथा - सब करणोंकी उपशामना सर्वकरणोपशामना है । अप्रशस्त उपशामना, निधत्त और निकाचना आदि भेदवाले आठ करणोंका अपनी-अपनी क्रियाको छोड़कर प्रशस्त उपशामनाके द्वारा जो सर्वोपशम होता है वह सर्वोपशामना है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका- यदि ऐसा है तो सर्वकरणोपशामनाके द्वारा अपकर्षण आदि क्रियाओंका अभाव होनेपर वहाँ अप्रशस्त उपशामना, निघत्त और निकाचना करणोंका अस्तित्व प्राप्त होता है, क्योंकि अपकर्षण आदि क्रियासे रहित उसकी उस प्रकारसे प्राप्ति बन जाती है। और ऐसी अवस्थामें यहाँ पर उनका उपशान्तपना कैसे सम्भव है । समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अप्रशस्त उपशामना आदिकी सन्तान अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करनेके प्रथम समयमें ही अत्यन्त उच्छिन्न हो जाती है, इसलिए ऊपर उनकी प्रवृत्ति सम्भव न होनेसे वहाँ उनके उपशान्तपनेकी सिद्धि हो जाती है । $ १६. यदि कहा जाय कि सर्वोपशामनामें अपकर्षण आदिका विरह हो जाता है, इसलिए वह अप्रशस्त उपशामना करण आदि संज्ञाके योग्य है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि संसार अवस्थामें अपकर्षण आदिको विषय प्रवृतिमें कितने ही कर्म परमाणुओंका बाह्य और अन्तरंग कारणोंके वशसे जो अपकर्षण आदिपनेसे विमुख होना है उसे अप्रशस्त उपशमनाकरण आदि संज्ञा देना योग्य है, किन्तु वह अत्यन्त विच्छेदका विषय नहीं होता ऐसा यहाँ स्वीकार किया गया है । इसलिए सर्वकरणोपशामना इस प्रकारको है यह सब निर्दोष है । विशेषार्थं - यहाँ सर्वोपशामनाके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए जो कुछ कहा गया है उसका भाव यह है कि अनिवृत्तिकरण के प्रथम समयमें अप्रशस्त उपशामना आदिकी व्युच्छित्ति हो जानेके बाद चारित्रमोहनीयकी विवक्षामें २१ प्रकृतियोंसम्बन्धी सब करणोंकी प्रशस्त उपशामना द्वारा उपशामना होती है वह सर्वकरणोपशामना है । यद्यपि अनिवृत्तिकरणके पूर्व जो कर्मपुंज अप्रशस्त उपशामना, निघत्ति और निकाचनारूप थे, यहाँ इन करणोंकी व्युच्छित्ति हो जाने पर उन कर्म
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy