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________________ उपशामना-सलक्षणमेदप्ररूपणा ५. एवमेदेण सुत्तेण उवसामणाए दुविहत्तं पदुप्पाइय संपहि एत्थ अकरणोवसामणाए अप्पवण्णणिज्जत्तादो पुन्वपरूवणाजोग्गाए सरूवपरूवणमुत्तरसुत्तमाह *जा सा अकरणोवसामणा तिस्से इमे दुवे णामधेयाणि-अकरणोवसामणा त्ति वि अणुदिण्णोवसामणा त्ति वि । ६६. एदस्सत्यो वुच्चदे । तं जहा–दव्व-खेत्त-काल-भावे अस्सिदूण कम्माणं विवागपरिणामो उदयो णाम । तेणोदयेण परिणदं कम्ममुदिण्णं। तत्तो अण्णमणासादिततप्परिणाममणुदिण्णं णाम । अणुदिण्णस्स उवसामणा अणुदिण्णोवसामणा । अणुदिण्णावत्या चेव करणपरिणामणिरवेक्खा अणुदिण्णोवसामणा त्ति भणिदं होदि । एसा चेव अकरणोवसामणा ति वि भण्णदे, करणपरिणामणिरवेक्खत्तादो । एवमेसा अकरणोवसामणाए समासपरूवणा। तन्वित्थरो पुण अण्णत्थ दट्ठन्वो । ताए एत्थाणहियारादो त्ति पदुप्पायमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एसा कम्मपवादे। ६७ कम्मपवादो णाम अट्ठमो पुन्वाहियारो। जत्थ सन्वेसि कम्माणं मूलुत्तरपयडिभेयभिण्णाणं दव-खेत्त-काल-भावमस्सियण विवागपरिणामो अविवाग विशेषार्थ-यहाँ करणोपशामना और अकरणोपशामना इन दोनोंके स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। विशेष ऊहापोह आगे स्वयं टीकाकार चूर्णिसूत्रोंको ध्यानमें रखकर करनेवाले हैं। ६५. इस प्रकार इस सूत्र द्वारा उपशामनाके दो भेदोंका प्रतिपादनकर अब यहाँ अकरणोशामना अल्प वर्णनके योग्य होनेसे पहले वह कथन करनेके योग्य है, इसलिये उसका कथन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं * जो वह अकरणोपशामना है उसके ये दो नाम हैं--अकरणोपशामना और अनुदीर्णोपशामना। ६. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह जैसे-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको निमित्त कर कर्मोंके विपाकरूप परिणामका नाम उदय है। उस उदयसे परिणत कर्मको उदीर्ण कहते हैं। उससे भिन्न जिसने विपाक परिणामको प्राप्त नहीं किया है उसे अनुदीर्ण कहते हैं। अनुदोर्ण कर्मकी उपशामना अनुदीर्ण उपशामना कहलाती है । करणपरिणामोंसे निरपेक्ष होकर जो अनुदीर्ण अवस्था होती है वही अनुदीर्णोपशामना है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसीको अकरणोपशामना भी कहते हैं, क्योंकि यह करण परिणामोंसे निरपेक्ष होती है । इस प्रकार यह अकरणोपशामनाकी संक्षिप्त प्ररूपणा है । उसका विस्तारसे कथन अन्यत्र देखना चाहिये। अधिकारवश यहाँ उसका कथन करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं * यह कर्मप्रवाद पूर्व में प्ररूपित है। ६७. कर्मप्रवाद आठवें पूर्वका नाम है। जहाँ मूल और उत्तर प्रकृतिभेदोंको प्राप्त सभी कर्मोके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको निमित्त कर अनेक प्रकारके विपाकपरिणाम और अविपाक
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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