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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * उवसामणा कविविधा त्ति। उवसामणा दुविहा-करणोवसामणा च अकरणोवसामणा च । ३. उवसामणा कदिविधा ति एदस्स ताव पढमगाहापढमावयवस्स अस्थविहासणं कस्सामो त्ति जाणावणटुं पुव्वमेव तदुच्चारणं कदं। उवसामणा णाम कम्माणमुदयादिपरिणामेहिं विणा उवसंतभावेणावट्ठाणं । ४. सा एत्थ दुविहा होइ करणाकरणोवसमणामेदेण । तत्थ करणोवसमणा णाम पसत्थापसत्थपरिणामेहि कम्मपदेसाणं उवसमभावसंपादणं । अधवा करणाणमुवसामणा करणोवसामणा, उवसामणा-णिवत्त-णिकाचणादिअट्ठकरणाणं पसत्थोवसामणाए उवसामणा, ओकहणादिकरणाणं वा अपसत्थोवसामणाए उवसामणा करणोवसामणा ति भणिदं होइ। एदंवदिरित्तलक्खणा अकरणोवसामणा णाम । पसत्थापसत्थकरणपरिणामेहिं विणा अपत्तकालाणं कम्मपदेसाणमुदयपरिणामेण विणा अवट्ठाणमकरणोवसामणा त्ति वुत्तं होइ। ___उपशामना कितने प्रकारको है ? उपशामना दो प्रकारकी है--करणोपशामना और अकरणोपशामना। ३. 'उपशामना कितने प्रकारकी हैं। इस प्रकार गाथाके इस प्रथम अवयवके अर्थका व्याख्यान करते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिये सर्वप्रथम उक्त अवयवका उच्चारण किया है । उदयादिरूप परिणामोंके विना कर्मोंका उपशान्त भावसे अवस्थित रहना इसका नाम उपशामना है। विशेषार्थ-चारित्रमोहनीयकी उपशामना प्रकरणमें जो आठ गाथाएं आई हैं उनमेंसे प्रथम गाथाका प्रथम पाद है-'उवसामणा कदिविधा'-उपशामना कितने प्रकारकी है । वृत्तिकार आचार्य यतिवृषभ इसकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि उपशामना दो प्रकारकी है-करणोपशामना और अकरणोपशामना। उनमेंसे सर्वप्रथम उपशामना पदकी व्याख्या करते हुए यहाँ जयधवला टीकामें बतलाया है कि उदयादि परिणामोंके विना कर्मोंका उपशान्तभावसे अवस्थित रहना इसका नाम उपशामना है। यहाँ 'उदयादि परिणामोंके विना' इसका आशय है कि किसी कर्मका बन्ध होने पर विवक्षित काल तक उदयादिके विना तदवस्थ रहना इसका नाम उपशामना है। यह उपशामनाका सामान्य लक्षण है जो यथासम्भव करणोपशामना और अकरणोपशामना दोनोंमें घटित होता है। $४. वह यहां दो प्रकारको है-करणोपशामना और अकरणोपशामना। उनमेंसे प्रशस्त और अप्रशस्त परिणामोंके द्वारा कर्म प्रदेशोंका उपशमभावसे सम्पादित होना करणोपशामना है । अथवा करणोंकी उपशामनाका नाम करणोपशामना है। उपशामना, निधत्त और निकाचना आदि आठ करणोंका प्रशस्त उपशामना द्वारा उपशम होना करणोपशामना है । अथवा अपकर्षण आदि करणोंका अप्रशस्त उपशामना द्वारा उपशम होना करणोपशामना है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इससे भिन्न लक्षणवाली अकरणोपशामना है। प्रशस्त और अप्रशस्त परिणामोक विना जिन कर्मप्रदेशोंका उदयकाल प्राप्त नहीं हुआ है उनका उदयरूप परिणामक विना अवस्थित रहना अकरणोपशामना है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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