SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीजइवसहाइरियविरइय- चुण्णिसुत्तसमणिदं सिरि- भगवंत गुणहर भडारओवइट्ठ कसा पाहु र्ड तस्स सिरि-वीरसेनविरइया टीका जय ध व ला तत्य चारित्तमोहणीय- उवसामणा णाम चोदसमो अत्थाहियारो 10001 * एत्तो सुत्तविहासा ६१. पुव्वं सुतपासेण विणा सुत्तसूचिदासेसत्थस्स परूवणा कदा | एहि पुण गाहासुत्ताणमवयवत्थविहासा कीरदि ति भणिदं होइ । * तं जहा $ २. सुगमं । संपहि एवं पुच्छाविसईकयविहासणं जहाकमं कुणमाणो तत्थ ताव कसायोवसामणाए पडिबद्धाणमदृन्हं गाहासुत्ताणमादिमगाहाए अवयवत्थविहासमुरिमं पबंधमाह - * अब आगे गाथासूत्रोंका व्याख्यान करते हैं । १. पहले गाथा सूत्रों को स्पर्श किये बिना गाथासूत्रोंद्वारा सूचित हुए पूरे अर्थकी प्ररूपणा । किन्तु यहाँ सर्व प्रथम गाथासूत्रोंके प्रत्येक पदमें निहित अर्थका विशेष व्याख्यान करते हैं यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है । * वह जैसे । $ २. यह सूत्र सुगम है । अब इस प्रकार पृच्छाके विषय हुए अर्थंका क्रमसे व्याख्यान करते हुए वहाँ सर्व प्रथम कषायविषयक उपशामनासे सम्बन्धित आठ सूत्रगाथाओंमेंसे प्रथम सूत्रगाथाके पदों के अर्थका व्याख्यान करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy