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________________ ३५८ जवधवलासहिदे कसायपाहुडे ४९६. विदियसमए द्विदि-अणुभागखंडएसु द्विदिबंधोसरणे च णत्थि किंचि णाणत्तं, पढमसमयाढत्ताणं चेव तेसिमण्णहाभावेण विणा ताधे वि पवुत्तिदंसणादो। * अणुभागबंधो अणंतगुणहीणो । $ ४९७. पडिसमयमणंतगुणवड्डीए विसोहीसु वड्डमाणासु अप्पसत्थाणं कम्माणमणुभागबंधस्स खवगसेढीए सव्वद्धाणंतगुणहाणिं मोत्तूण पयारंतरासंभवादो। एवमणुभागोदयस्स वि वत्तव्यं, विसेसामावादो । * गुणसेढी असंखेनगुणा। $ ४९८. कुदो ? विसोहीसु वड्डमाणियासु पडिसमयमसंखेज्जगुणाए सेडीए पदेसग्गमोकड्डियूण गुणसेढिणिक्खेवं कुणमाणस्स तदविरोहादो। * अपुव्वफदयाणि जाणि पढमसमए णिव्वत्तिदाणि विदियसमये ताणि च णिव्वत्तयदि अण्णाणि च अपुवाणि तदो असंखेजगुणहीणाणि । ६४९९. पढमसमये जाणि अपुव्वफद्दयाणि एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरफद्दयाणमसंखेज्जदिभागपरिमाणाणि णिव्वत्तिदाणि ताणि पुणो वि सरिसघणियमुहेण णिव्वत्तेमाणो चेव तदो हेट्ठा अण्णाणि वि अपुव्वफद्दयाणि तत्तो असंखेज्जगुणहीण ६४९६. अश्वकर्णकरणकारकके दूसरे समयमें स्थितिकाण्डक, अनुभाषकाण्डक और स्थितिबन्धापसरणमें कुछ भी भेद नहीं है, क्योंकि प्रथम समयमें आरम्भ किये गये उन तीनोंकी अन्यथाभावके बिना उसी रूपसे उस समय भी प्रवृत्ति देखी जाती है । * अनुभागबन्ध अनन्तगुणा हीन होता है। $ ४९७. क्योंकि क्षपकश्रेणिमें प्रत्येक समयमें विशद्धियाँ अनन्तगुणवृद्धिरूपसे वृद्धिंगत होती रहती हैं, इसलिए वहाँ अप्रशस्त कर्मों के अनुभागबन्धके सर्वकालमें अनन्तगुणहानिको छोड़कर अन्य कोई प्रकार सम्भव नहीं है। इसी प्रकार अनुभाग-उदयका भी कथन करना चाहिये, क्योंकि बन्धसे उदयमें अन्य किसी विशेषका अभाव है। * तथा गुणश्रेणि असंख्यातगुणी होती है । $ ४९८. क्योंकि विशुद्धियोंकी वृद्धि होते रहनेपर प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणी श्रोणिरूपसे प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके गुणश्रेणिनिक्षेप करनेवाले जीवके उक्त प्रकारसे गुणश्रोणिके होनेमें विरोधका अभाव है। * प्रथम समयमें जिन अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना की थी, दूसरे समयमें उनकी भी रचना करता है और उनसे असंख्यातगुणे हीन अन्य अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करता है। ६४९९. प्रथम समयमें एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके असंख्यातवें भागप्रमाण जिन अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना की थी उन्हें फिर भी सदृश धनरूपसे रचता हुआ ही उनसे नीचे उनके असंख्यातगुणे हीन अन्य भी अपूर्ण सधकोंकी दूसरे समयमें रचना करता है यह उक्त कथनका
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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