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________________ अस्सकण्णकरणपरूवणा ३५९ पमाणाणि विदियसमए णिव्वतेदित्ति भणिदं होदि । होदु णामेदं, अण्णाणि अपुव्वफद्दयाणि तदो हेट्ठा असंखेज्जगुणहीणाणि णिव्वत्तेदि त्ति, विरोहाभावादो । किंतु ताणि च णिव्वदिति णेदं घडदे, पढमसमए चेव णिप्पण्णाणं तेसिं पुणो णिप्पायणविरोहादो ? ण एस दोसो, णिप्पण्णाणं पि तेसिं सरिसधणियमुहेण पुणो णिप्पायने विरोहाभावादो । $५००. एवं च ताणि णिव्वत्तेमाणस्स तत्थ दिज्जमाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणट्टमुत्तरो सुत्तपबंधो * विदियसमये अपुव्वफदएसु पदेसग्गस्स दिजमाणयस्स सेढि - परूवणं वत्तहस्सामो । $५०१. सुगमं । * तं जहा । ६५०२. सुगमं । तात्पर्य है । शंका- यह बात होओ कि प्रथम समयमें रचे गये अपूर्व स्पर्धकोंसे नीचे उनसे असंख्यात - अन्य अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करता है, क्योंकि इसमें किसी भी प्रकार के विरोधका अभाव है । किन्तु जो प्रथम समयमें रचे गये उन्हीं को पुनः रचता है यह बात घटित नहीं होती, क्योंकि जो प्रथम समयमें ही रचे गये उनकी पुनः रचना करने में विरोध आता है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो प्रथम समयमें रचे गये उनका सदृश धनस्वरूपसे पुनः निष्पन्न करनेमें विरोधका अभाव है । विशेषार्थ - यद्यपि प्रथम समय में रचे गये स्पर्धकोंसे दूसरे समयमें नये स्पर्धक ही रचे जाते हैं, परन्तु दूसरे समयमें रचे गये जो स्पर्धक प्रथम समय में रचे गये स्पर्धकोंके समान सदृश धनवाले होते हैं उनको लक्ष्यमें लेकर यह कहा गया है कि जो प्रथम समयमें रचे गये हैं उनको दूसरे समय में भी रचता है। इसलिए उक्त कथनमें कोई विरोध नहीं आता । शेष कथन सुगम है । § ५००. इस प्रकार उन्होंको रचना करनेवाले जीवके वहाँपर दिये जानेवाले प्रदेशपु जकी श्रेणिप्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है - * अब दूसरे समयमें अपूर्व स्पर्धकों में दिये जानेवाले प्रदेश पुंजकी श्रेणिप्ररूपणा बतलावेंगे | $ ५०१. यह सूत्र सुगम है । वह जैसे । $ ५०२. यह सूत्र सुगम है ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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