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________________ अस्सकण्णकरणपरूवणा ३५७ समाणफद्दयाणमणंतभागोति । $ ४९४. पुब्वपि संजलणाणमणुभागबंधो पुव्वफद्दयसरूवो होदूण लदासमाणफद्दयाणमणंतिमभागसरूवेण पयट्टमाणो एहि तत्तो अनंतगुणहाणीए सुट्ठ ओहट्टि - यूण अव्वफद्दयाणं पढमफद्दय पहुडि जाव लदासमाणफयाणमणंतिमभागो ति एदेसिं फद्दयाणं सरूवेण पयट्टदि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसमुच्चओ । णवरि पुव्वपरूविदोदय फद्दहिंतो एदाणि चंधफद्दयाणि अनंतगुणहीणाणि त्ति घेत्तव्वाणि, बंधोदयाणमेत्थतणाणमेयाणियत्ताविसेसे वि संपहि बंधादो उदयो अनंतगुणो ति सिं तहाभावो वत्तदो । एसा च सव्वा परूवणा अस्सकण्णकरणकारयस्स पढमसमयमहिकिच्च परुविदा त्ति जाणावणट्ठमुत्तरं सुत्तमाह * एसा सव्वा परूवणा पढमसमयअस्सकण्णकरणकारयस्स | S ४९५. एसा अनंतरादिक्कत सव्वपरूवणा पढमसमय अस्सकण्णकरण कारय महिकिच्च परुविदा त्ति भणिदं होदि । एवमेत्तिएण पबंधेण पढमसमयविसयं परूवणं समायि संपहि विदियसमयपडिबद्धं परूवणं कुणमाणो उवरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ * एत्तो विदियसमए तं चैव ट्ठिदिखंडयं, तं चेव अणुभागखंडयं, सो चेव द्विदिबंधो । स्पर्धक बन्धरूपसे निष्पन्न होते हैं । $ ४९४. पहले भी संज्वलनोंका अनुभागबन्ध पूर्व स्पर्धकरूप होकर लतासमान स्पर्धकों के अनन्तवें भागरूपसे प्रवृत्त होता रहा अब इस समय उससे अनन्तगुणहानिरूप से अच्छी तरह घटकर अपूर्ण स्पर्धकोंके प्रथम स्पर्धकसे लेकर लता समान स्पर्धकोंके अनन्तवें भाग के प्राप्त होनेतक इन स्पर्धक रूपसे प्रवृत्त होता है इस प्रकार यह यहाँ सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है इतनी विशेषता है कि पूर्व में कहे गये उदयरूप स्पर्धकोंसे ये बन्धरूप स्पर्धक अनन्तगुणे हीन होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यहाँ सम्बन्धी बन्ध और उदय एक स्थानीय रूपसे उनमें कोई विशेषता न होनेपर भी इस समय बन्धसे उदय अनन्तगुणा है, इसलिए उन दोनोंकी उसरूपसे उपपत्ति बन जाती है । यह समस्त प्ररूपणा अश्वकर्णकरणकारकके प्रथम समयका आलम्बन लेकर कही गई है इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगे सूत्रको कहते हैं * यह सब प्ररूपणा अश्वकर्णकरणकारकके प्रथम समयकी की गई है । ६ ४९५. अनन्तर पूर्व व्यतीत हुई यह सब प्ररूपणा प्रथम समयवर्ती अश्वकर्णकरणकारकका आलम्बन लेकर कही गई है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा प्रथम समयके विषयका कथन समाप्त करके अब दूसरे समयसे सम्बन्ध रखनेवाली प्ररूपणाको करते हुए आगे सुत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं— * इससे आगे दूसरे समयमें वही स्थितिकाण्डक होता है, वही अनुभागaruse होता है और वही स्थितिबन्ध होता है ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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