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________________ ३५६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे तत्तो हेट्ठिमसव्वपुव्वफद्दयसरूवेण च संजलणाणमुदयपवृत्ती होदि, णोवरिमफद्दयसरूवेणेत्ति एसो अत्थविसेसो जाणाविदो । तं जहा - ' - ' अपुब्वफद्दयाणि उदिण्णाणि च अणुदिण्णाणि च एवं भणिदे अपुव्वफद्दयसरूवेण तक्कालमेव परिणममाणाणुभागसंतकम्मादो पदेसग्गस्स असंखेज्जदिभाग मोकड्डियणुदीरेमाणस्स उदयट्ठिदिअन्भं तरे सव्वेसिमपुव्व फद्दयाणं सरूवेणाणुभागसंतकम्ममुव लब्भदे । एवमुवलब्भमाणे सव्वाणि चैत्र अपुव्वफद्दयाणि उदिण्णाणि होंति । णवरि अपुव्वफद्दयसरूवेण परिणदसंतकम्मं णिरवसेसमुदयं णागयं । किं कारणं १ अपुब्वफद्दय सरिसधणिय परमाणुसुफद्दयं पडि समवट्ठिदेसु तत्थ केत्तियाणं पि उदये संजादे वि सेसा तहा चेव चिट्ठति, तेण कारणेणापुव्वफद्दयाणि सव्वाणि उदिण्णाणि च अणुदिण्णाणि चेदि भणिदं । एवं व पुव्वयाणं पि आदीदो पहुडि अनंतिमभागस्स उदिण्णाणुदिण्णत्तं वत्तव्वं, तेर्सि पि सरिसधणिय मुहेणोदिण्णाणं सेसतज्जातीय सरूवेणाणु दिण्णभाव सिद्धीए विप्पडिसेहा मावादो । लदासमाण पुव्वफद्द्याणमणंतिमभागादो उवरिमा पुण अनंता मागाणियमा अणुदिण्णा, तेसिं सव्वेसि पि सगसरूवेणुदयपवेसाणुवलंभादो । एवमुदयपरूवणं काढूण संपहि तत्थेव चउण्हं संजलणाणमणुभागबंधो कधं पयद्वृदित्ति एवंविहासंकाए णिरागीकरणट्टमुत्तरमुत्तारंभो * बंधेण णिव्वत्तिज्जंति अपुव्वफद्दयं पढममादिं काढूण जाव लदा उससे नीचे के समस्त अनुभागकी अपूर्ण स्पर्धकरूपसे उदयप्रवृत्ति होती है, उपरिम स्पर्धकरूपसे नहीं इस अर्थविशेषका इस सूत्र द्वारा ज्ञान कराया गया है । वह जैसे - अपूर्व स्पर्धक उदीर्ण भी होते हैं और अनुदीर्ण भी होते हैं ऐसा कहनेपर अपूर्व स्पर्धकरूपसे तत्काल ही परिणमन करनेवाले अनुभाग सत्कर्ममेंसे जिस प्रदेशपुंजका असंख्यातवाँ भाग अपकर्षित होकर उदीरित होता है उसकी उदय स्थितिके भीतर सभी अपूर्व स्पर्धकोंका स्वरूपसे अनुभाग सत्कर्म पाया जाता है । इस प्रकार पाये जानेपर भी वे सभी अपूर्व स्पर्धक उदीर्ण होते हैं । इतनी विशेषता है कि अपूर्व स्पर्धक रूपसे परिणत हुआ सत्कर्म पूराका पूरा उदयमें नहीं आया है, क्योंकि अपूर्व स्पर्धकसम्बन्धी सदृश धनवाले परमाणुओंके स्पर्धकरूपसे अवस्थित होनेपर उनमेंसे कितने ही परमाणुओंका उदय होनेपर भी शेष उसी प्रकार अवस्थित रहते हैं । इस कारण अपूर्व स्पर्धक सभी उदीर्ण भी हो हैं और अनुदीर्ण भी रहते हैं ऐसा कहा है । इसी प्रकार पूर्व स्पर्धकोंके भी आदिसे लेकर अनन्त भागप्रमाण स्पर्धक उदीर्ण भी होते हैं और अनुदीर्ण भी रहते हैं ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि उनमें से भी सदृश धनरूपसे कितने ही उदीर्णं होते हैं और शेष तज्जातीयरूपसे अनुदीर्ण रहते हैं इसकी सिद्धिमें कोई निषेध नहीं पाया जाता । परन्तु लतासमान पूर्व स्पर्द्धकोंके अनन्तवें भागसे उपरिम अनन्त बहुभागप्रमाण स्पर्धक नियमसे अनुदीर्ण रहते हैं, क्योंकि उनका अपने स्वरूपसे उदयमें प्रविष्ट होना नहीं पाया जाता। इस प्रकार उदयकी प्ररूपणा करके अब वहीं पर चारों संज्वलनोंका अनुभागबन्ध कैसे प्रवृत्त होता है ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेके लिये आगे के सूत्रका आरम्भ करते हैं * प्रथम अपूर्व स्पर्धकसे लेकर लता समान स्पर्धकोंके अनन्तवें भाग तक
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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