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________________ ३४० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * जहा लोभस्स अपुव्वफद्दयाणि परविदाणि पढमसमए, तहा तहा मायाए माणस्स कोधस्स वरूवेयव्वाणि । ४६८. कुदो ? मायादिसंजलणाणं पि पुन्वफद्दएहितो पदेसग्गस्स असंखेज्जदिभागमोकड्डियण पढमस्स देसघादिफद्दयस्स हेट्ठा अणंतिमभागे अणंताणि अपुव्व. फद्दयाणि पदेसगुणहाणिट्ठाणंतरफद्दयाणमसंखेज्जदिभागपमाणाणि अणंतरोवणिधाए अणंताभागुत्तरादिकमेण वड्डिदादिवग्गणाविभागपडिच्छेदग्गाणि, परंपरोवणिधाए च पढमफद्दयादिवग्गणाविभागपडिच्छेदग्गादो अणंतगुणवड्डिदचरिमफद्दयादिवग्गणा विभागपडिच्छेदग्गाणि णिव्वत्तेदि ति एदेण मेदाभावादो। $ ४६९. एत्थ पुरिसवेदस्स वि पवकबंधाणुभागसंभवे तस्सापुव्वफद्दयविहाणं पत्थि त्ति घेत्तव्वं, चदुण्डं संजलणाणमेवापुव्वफद्दयाणि णिवत्तेदि त्ति सुत्ते विसेसिदूण परूविदत्तादो। ण च पुरिसवेदणवकबंधाणुभागस्स खंडयघादादिसंभवो वि एत्थरिथ, केवलं बंधावलियादिक्कतकमेण तदणुभागस्स समयणदोआवलियमेत्तकालेण संछोहणं मोत्तण तत्थ किरियंतराणुवलंभादो। संपहि चउण्हं संजलणाणमपुव्वफद्दयाणि किं सरिसपमाणाणि आहो विसरिसपमाणाणि त्ति आसंकाए णिरारेगीकरणट्ठमप्पाबहुअसुत्तमाह * जिस प्रकार अवेदकके प्रथम समयमें लोभके अपूर्व स्पर्धकोंकी प्ररूपणा की उसी प्रकार माया, मान और क्रोधकी प्ररूपणा करनी चाहिये । $४६८. क्योंकि माया, आदि संज्वलनोंके भी पूर्व स्पर्धकोंमेंसे प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागका अपकर्षण कर प्रथम देशघाति स्पर्धकके नीचे अनन्तवें भागमें अनन्त अपूर्व स्पर्धकोंको रचता है, जो प्रदेशगुणहानि स्थानान्तर (एक गुणहानि) के असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं तथा जो अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा अनन्त बहुभाग अधिक अनन्त बहुभाग अधिकके क्रमसे वृद्धिको प्राप्त हुई आदि-वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदरूप होते हैं और परम्परोपनिधाकी अपेक्षा जो प्रथम स्पर्धककी आदि-वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदपुंजसे अनन्त गुणरूपसे वृद्धिको प्राप्त हुए अन्तिम स्पर्धककी आदि-वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदपुंजरूप होते हैं। इस प्रकार इस कथनकी अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं पाया जाता है। $४६९. यहाँपर पुरुषवेदके भी नवकबन्धके अनुभागके सम्भव होनेपर उसके अपूर्व स्पर्धकों का विधान नहीं है ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि चारों संज्वलनोंके ही अपूर्व स्पर्धकोंको रचता है ऐसा सूत्रमें विशेषरूपसे कथन किया गया है। और पुरुषवेदके नवकबन्धके अनुभागका काण्डकघात आदि भी यहाँपर सम्भव नहीं है, केवल बन्धावलिके अतिक्रान्त होनेके क्रमसे पुरुषवेदके अनुभागकी एक समय कम दो आवलिप्रमाण कालके द्वारा निर्जराको छोड़कर उसमें अन्य कोई क्रिया नहीं पाई जाती है । अब चारों संज्वलनोंके अपूर्व स्पर्धक क्या सदृशप्रमाणवाले होते हैं या विसदृश प्रमागवाले होते हैं ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेके लिए अल्पबहुत्वसूत्रको कहते हैं
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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