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________________ खवगसेढीए अपुव्वफद्दयपरूवणा ३४१ * पढमसमए जाणि अपुव्वफद्दयाणि णिव्वत्तिदाणि तत्थ को घस्स थोवाणि । माणस्स अपुत्र्वफद्दयाणि विसेसाहियाणि । मायाए अपुव्वफद्दयाणि विसेसाहियाणि । लोभस्स अपुत्र्वफद्दयाणि विसेसाहियाणि । $ ४७०. जइ वि चदुण्हं पि मंजलणाणमेगगुणहाणिट्ठा नंतर फट्ट्याणमसंखेज्जभागमेत्ताणि चैवापुव्वफद्दयाणि णिव्वत्तेदि तो वि ण ताणि सव्त्रसंजलणेसु समखंडाणि, किंतु कोहादिसंजलणेसु एदेणप्पाचहुअविहिणा पयट्टंति त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसमुच्चओ । एवमेदेमिं विसे माहियभावं पदुष्पाइय संपहि एत्थेव विसेसाहियपमाणावहारणट्ठमुवरिमं सुत्तावयवमाह * विसेसो अनंतभागो । $ ४७१. जो पुव्वसुत्ते णिरिट्ठो अपुव्वफद्दयाणं विसेसो सो संखेज्जदिभागो असंखेज्जदिभागो वा ण होइ, किंतु अनंतभागो त्ति घेत्तव्वो । कोह संजलणरसापुव्वफद्दयाणि तप्पा ओग्गाणंतरूवेहिं खंडिय तत्थेय खंड मेत्तेण तत्तो माणसंजलणाणमपुव्व फद्दयाणमहियत्तदंसणादो। एवं माण- माया-संजलणाणमपुव्वफद्दयवग्गणणाए विसेसाहियत्तमणुगंतव्वं । एत्थ कोहादिसंजलणाणमपुव्वफद्दयपमाणं संदिट्ठीए एत्तियमिदि घेत्तव्वं १६, २०, २४, २८ । * प्रथम समय में जो अपूर्वस्पर्धक निष्पन्न किये जाते हैं उनमें क्रोधके सबसे थोड़े होते हैं, मानके अपूर्वस्पर्धक विशेष अधिक होते हैं, मायाके अपूर्वस्पर्धक विशेष अधिक होते हैं और लोभके अपूर्वस्पर्धक विशेष अधिक होते हैं । $ ४७०. यद्यपि यह जीव चारों ही स्पर्धकोंके एक गुणहानि स्थानान्तरप्रमाण स्पर्धककों के असंख्यातवें भागप्रमाण ही अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करता है तो भी वे सब संज्वलनोंमें समान खण्डरूप नहीं होते हैं, किन्तु क्रोधादि संज्वलनोंमें इस अल्पबहुत्वविधिसे प्रवृत्त होते हैं इस प्रकार यह यहाँ पर इस सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । इस प्रकार इनके विशेष अधिकपनेका कथन करके अब यहीं पर उनके विशेष अधिक प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगे उक्त सूत्र - अवयवको कहते हैं * उक्त अल्पबहुत्वमें विशेषका प्रमाण अनन्तवाँ भाग है । $ ४७१. जो पूर्व सूत्रमें अपूर्व स्पर्धकों में विशेषका निर्देश किया है वह संख्यातवें भागप्रमाण और असंख्यातवें भागप्रमाण नहीं होता, किन्तु अनन्तवें भागप्रमाण ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि क्रोधसंज्वलनके अपूर्व स्पर्धकोंको तत्प्रायोग्य अनन्तसे भाजित कर लब्ध एक भागप्रमाण मानसंज्वलनके अपूर्व स्पर्धक उनसे अधिक देखे जाते हैं । इसी प्रकार मान और माया संज्वलनोंके अपूर्व स्पर्धकों की शलाकाओं से क्रमसे माया और लोभसंज्वलनोंके अपूर्व स्पर्धककी गणना विशेष अधिकरूपसे जाननी चाहिये । यहाँपर क्रोधादि संज्वलनोंके अपूर्व स्पर्धकों का प्रमाण अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा क्रमसे इतना ग्रहण करना चाहिये - १६, २०, २४, २८ ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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