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________________ खवगसेढीए अपुव्वफद्दयपरूवणा परूविय संपहि तत्थेव पढमफद्दयादिवग्गणादो चरिमफद्दयादिवग्गणाविभाग पडिच्छेदग्गमेदिगुणमिदि जाणावट्टमप्पाबहुअमाह— जाणि पढमसमये अपुव्वफद्दयाणि णिवत्तिदाणि तत्थ पढमस्स फद्दयस्स आदिवग्गणा थोवा । $ ४६५. सुगमं । * चरिमस्स अपुव्वफद्दयस्स जादिवग्गणा अनंतगुणा । ३३९ $ ४६६. कुदो ? पढमादो अपुव्वफद्दयादो अर्णताणि फट्ट्याणि अभवसिद्धिएहि अनंतगुण सिद्धाणंत भागमेत्ताणि गंतूणेदिस्से समुप्पत्तिदंसणा दो । एत्थ गुणगारो फद्दयसलाग मेत्तो, एगपरमाणुविवक्खाए तदविरोहादो । सरिसधणियविवक्खाए पुण एसोचैव गुणगारो किंचूणो त्ति वत्वं । * पुव्वफद्दयस्सादिवग्गणा अनंतगुणा । $ ४६७. पुव्वफद्दयाणं सव्वजहण्णदेसघादिफद्दयादिवग्गणादो अर्णतगुणहाणी ओवपूण अपुव्यफद्दयाणं णिव्वत्तिदत्तादो । संपहि जहा लोभसंज्वलणमहिकिच्च एसा अपुव्वफद्दयपरूवणा पढमसमयअवेदस्स परूविदा एवं कोह -माण - मायाणं पिपरूवेयव्वात्ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाओंके अविभागप्रतिच्छेदोंके अल्पबहुत्वका कथन करके अब वहींपर प्रथम स्पर्धककी आदि-वर्गणासे अन्तिम स्पर्धककी आदि वर्गणाके अविभाग प्रतिच्छेदपुंज इतने गुणे होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए अल्पबहुत्वको कहते हैं * जो प्रथम समय में अपूर्व स्पर्धक निष्पन्न होते हैं उनमेंसे प्रथम स्पर्धककी आदि वर्गणा सबसे स्तोक है । $ ४६५ यह सूत्र गतार्थ है । * उससे अन्तिम अपूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणा अनन्तगुणी है । $ ४६६. क्योंकि प्रथम अपूर्वस्पर्धकसे अभव्योंसे अनन्तगुणं और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण अपूर्वस्पर्धक आगे जाकर इसको उत्पत्ति देखी जाती है । यहाँ उक्त स्पर्धकों की जितनी शलाकाऐं हैं तत्पप्रमाण गुणकार है। कारण कि एक परमाणुकी विवक्षा करनेपर उसमें कोई विरोध नहीं है । किन्तु सदृश धनकी विवक्षा करनेपर तो यही गुणकार कुछ कम कहना चाहिये । * उससे पूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणा अनन्तगुणी है । $ ४६७. क्योंकि पूर्वस्पर्धकोंके सबसे जघन्य देशघाति स्पर्धककी आदि वर्गणासे अनन्तहानि द्वारा भाजित कर अपूर्वं स्पर्धकोंकी रचना हुई है । अब प्रथम समयवर्ती अवेदकके जिस प्रकार लोभसंज्वलनको अधिकृत कर अपूर्व स्पर्धकों की यह प्ररूपणा की है उसी प्रकार क्रोध, मान और मायाकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये इसी बातका ज्ञान कराते हुए आगे सूत्रको कहते हैं
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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