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________________ ३२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे माणकंडयपमाणेण मायाखंडए बुद्धीए गहिदे दोण्हं पि खंडयपमाणं गहिदसेसपमाणं च सरिसं होदण चिट्ठदि । पुणो एत्थ हेडिममायासंतकम्ममणते भागे कादण तत्थ एगभागं मोत्तण सेसे अणंते भागे ओसरिदण मायाकंडएण सह आगाएदि । एवं लोभस्स वि वत्तव्वं । तदो पढमसमयअस्सकण्णकरणकारयस्स आगाइदसेसफद्दयाणि लोभे थोवाणि, मायाए अणंतगुणाणि, माणे अणंतगुणाणि, कोहे अणंतगुणाणि त्ति भणिदाणि । एत्थ चउण्हं संजलणाणं पुव्वसंतकम्मफद्दयसंदिट्ठी कोहादिपरिवाडीए एसा घेत्तव्वा- । ९६ । ६५ । ९७ । ९८। । तेसिं चेव आगाइदफद्द्यसंदिट्ठी । ६४ । ७९ । ८९ । ९४ । । तेसिं चेव कोहादीणमागाइदसेसफद्दयसंदिट्ठी एसा । ३२ । १६ । ८।४।। एदीए संदिट्ठीए तिण्हमेदेसि मप्पाबहुआणं फुडीकरणं कायव्वं । मायाका शेष प्रमाण बचा है उसमेंसे उसी मायाके काण्डकको मानके काण्डकके बराबर बुद्धिसे ग्रहण करनेपर दोनों ही काण्डकोंका प्रमाण और मायासत्कर्मका काण्डकरूपसे ग्रहण करनेके बाद शेषप्रमाण मानके सत्कर्मके सदृश होकर प्राप्त होता है। पुनः यहाँपर काण्डकके नीचे माया सत्कर्मके अनन्त भाग करके उनमेंसे एक भागको छोड़कर शेष अनन्त बहुभागको पृथक् करके मायाकाण्डकके साथ ग्रहण करता है। इसी प्रकार लोभसंज्वलनका भी कथन करना चाहिये । इस प्रकार अश्वकर्णकरणकारकके प्रथम समयमें काण्डकरूपसे ग्रहण करनेके बाद जो स्पर्धक शेष बचते हैं वे लोभमें सबसे थोड़े होते हैं, मायामें अनन्तगुणे होते हैं, मानमें अनन्तगुणे होते हैं और और क्रोधमें अनन्तगुणे होते हैं ऐसा कहा है। यहाँपर चारों संज्वलनोंके अश्वकर्णकरणके पहले सत्कर्मस्पर्धकोंकी संदृष्टि क्रोधादि परिपाटीके अनुसार यह ग्रहण करनी चाहिए क्रोध मान माया लोभ अश्वकर्णकरणके पूर्वकी सत्कर्मस्पर्धकोंकी संदृष्टि ९६ ९५ ९७ उन्हींके ग्रहण किये गये स्पर्धकोंकी संदृष्टि ६४ ७९ ८९ ग्रहण करने के बाद शेष बचे स्पर्धकोंकी संदृष्टि ३२ १६ इस संदृष्टिके द्वारा इन तीनों अल्पबहुत्वोंका स्पष्टीकरण करना चाहिये । विशेषार्थ-अश्वकर्णकरणको सम्पन्न करनेके पहले लोभका अनुभागसत्कर्म सबसे अधिक था । अंक संदृष्टिसे उसका प्रमाण ९८ लिया है। उससे अनन्तवाँ भागकम मायाका अनुभागसत्कर्म था। अंक सदृष्टिसे उसका प्रमाण ९७ लिया है। यहां अनन्तवें भागका प्रमाण संदृष्टिकी अपेक्षा १ अंक स्वीकार करके १ कम किया गया है। उससे अनन्तवाँ भागकम क्रोधका अनुभागसत्कर्म है जो अंक संदृष्टिसे ९६ स्वीकर किया गया है और उससे अनन्तवाँ भागकम लोभका अनुभागसत्कर्म है जो अंकसंदृष्टिसे ९५ स्वीकार किया गया है। यहां क्रोध, माया और लोभका जितना अधिक सत्कर्म है उसको अलग करनेपर चारोंका अनुभागसत्कर्म क्रमसे इस प्रकार प्राप्त होता. है .२ .३। पुनः बुद्धिसे इनके समान काण्डक ग्रहण करनेपर यह स्थिति बनती है
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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