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________________ खवगसेढीए पढमसमए अस्सकण्णकरणकारगपरूवणा ३२७ गुणाणि, माणे अतगुणाणि, कोघे अणंतगुणाणि । ४४५. खंडयादो हेट्ठा उव्वराविज्जमाणमणुभागसंतकम्ममेदेणप्पाबहुअविहाणेण चिट्ठदि त्ति वुत्तं होइ । संपहि अणुभागखंडयमागाएंतो सव्वेसि विसेसाहियकमेणागाएदि, तेणागाइदसेसाणुभागो लोभादो पहुडि पच्छाणुपुवीए विसेसाहिओ अहोदूण कधमणंतगुणो जादो त्ति एवंविहासंकाए णिरारेगीकरणट्ठमिमा परूवणा कीरदे । तं जहा-माणाणुभागसंतकम्मादो कोहाणुभागसंतकम्मं विसेसाहियं होदि । केत्तियमेत्तेण १ पयडिविसेसेणाणंतिमभागमेत्तेण । एवं होदि त्ति कादूण माणसंतकम्मादो अमहियं होदूण द्विदकोहाणुभागमवणेयण पुध दृविदे कोह-माणखंडयाणि दो वि सरिसाणि भवंति । हेडिमाणभागसंतकम्म पि दोस वि सरिसं होदण चिट्ठदि । किं कारणं ? सरिसाणि चेव खंडयाणि गहिदाणि त्ति बुद्धीए विवक्खियत्तादो । संपहि सेसहेटिममाणसंतकम्ममणंतखंडं कादूण तप्थेगखंडं मोनूण पुणो अणते भागे खंडएण सह गेण्हदि । इमे च अणंता भागा सयलसंतकम्मस्स अणंतिमभागपमाणा होण माणादो उवरि विसेसाहियपुव्ववण्णिदकोहाणुमागसंतकम्मफद्दएहितो अणंतगुणा भवंति । एवं माणसंतकम्मादो मायासंतकम्मस्स अहियाणुभागमवणिय सेसादो होते हैं, मायामें उनसे अनन्तगुणे होते हैं, मानमें उनसे अनन्तगुणे होते हैं और क्रोधमें उनसे अनन्तगुणे होते हैं। ६४४५. काण्डकघातसे नीचे जो अनुभागसत्कर्म शेष बचता है वह इस अल्पबहुत्वविधिसे स्थित रहता है यह उक्त कथनका तात्पर्य हैं। अब अनुभागकाण्डकघातको आरम्भ करता हुआ सबको विशेष अधिक क्रमसे आरम्भ करता है, इसलिए आरम्भ किये गये अनुभागकाण्डकघातसे शेष रहा अनुभाग लोभसे लेकर पश्चादानुपूर्वीके अनुसार विशेष अधिक न होकर अनन्तगुणा कैसे हो गया इस तरह इस प्रकारकी आशंकाके होनेपर निःशंक करनेके लिये आगेकी इस प्ररूपणाको करते हैं। वह जैसे-मानसंज्वलनके अनुभागसत्कर्मसे क्रोधसंज्वलनका अनुभागसत्कर्म विशेष अधिक होता है। शंका-कितना मात्र अधिक होता है । समाधान-प्रकृति विशेषकी अपेक्षा अनन्तवा भागमात्र अधिक होता है। इस प्रकार होता है ऐसा करके मानसत्कर्मसे अधिक होकर स्थित जो क्रोधका अनुभाग है उसे घटाकर पृथक् स्थापित करनेपर क्रोध और मानके दोनों ही काण्डक सदृश होते हैं। अधस्तन अनुभागसत्कर्म भी दोनोंमें ही सदृशरूपसे स्थित रहता है, क्योंकि प्रकृतमें बुद्धिसे विवक्षित कर काण्डकोंको सदृश ही ग्रहण किया गया है। अब काण्डकसे नीचे जो मानका सत्कर्म शेष बचा है उसके अनन्त खण्ड करके पुनः उनमेंसे एक खंडको छोड़कर पुनः अनन्त बहुभागको काण्डकके साथ ग्रहण करता है। और मानसंज्वलनके ये अनन्त बहुभाग समस्त सत्कर्मके अनन्तवें भागप्रमाण होकर जो पहले क्रोधअनुभागके स्पर्धकसत्कर्म मानसे ऊपर विशेष अधिक कह आये हैं वे अनन्तगुणे होते हैं। इसी प्रकार मानसत्कर्मसे मायासत्कर्मके अधिक अनुभागको निकालकर जो
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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