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________________ ३२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे याणि कोधे थोवाणि, माणे फद्दयाणि विसेसाहियाणि, मायाए फद्दयाणि विसेसाहियाणि, लोभे फदयाणि विसेसाहियाणि । ४४३. एत्तो हेद्विमासेसाणुमागखंडएस माणे फद्दयाणि थोवाणि होदूण कोह-माया-लोमेसु जहाकम विसेसाहियकमेण पयट्टाणि, संताणुसारेणेव तत्थाणुभागखंडयप्पाबहुअपवुत्तिदंसणादो। एम्हि पुण खंडयमागाएंतो कोहे थोवाणि फद्दयाणि सगसंतकम्मस्साणंतभागमेत्ताणि गेण्हइ । एवं माणादीणं पि विसेसाहियकमेण खंडयमागाएदि । किं कारणं ? अण्णहा घादिदसेसाणुभागस्स लोभादिपरिवाडीए अस्सकण्णायारेणावट्ठाणाणुववत्तीदो । अधवा अपुव्वफद्दयादिविहाणेण उवरि खविज्जमाणे जस्साणुभागसंतकम्मं मंदोदयं होदण पच्छा खविज्जदि तस्साणुभागसंतकम्म बहुअं घादेदि त्ति घेत्तव्वं । ४४४. संपहि आगाइदसेसाणुभागस्स कोहादिसंजलणेसु कधमवट्ठाणं होदि त्ति एदस्स फुडीकरणटुं तदियमप्पाबहुअपयारं मणइ * आगाइदसेसाणि पुण फदयाणि लोभे थोवाणि, मायाए अणंतस्पर्धक क्रोधमें सबसे थोड़े होते हैं, मानमें स्पर्धक विशेष अधिक होते हैं, मायामें स्पर्धक विशेष अधिक होते हैं और लोभमें स्पर्धक विशेष अधिक होते हैं। ४४३. इससे पूर्वके समस्त अनुभागकाण्डकोंमें मानमें स्पर्धक कम होकर क्रोध, माया और लोभमें क्रमसे विशेष अधिकरूपसे प्रवृत्त रहते हैं, क्योंकि सत्त्वके अनुसार ही वहाँ अल्पबसुत्वसम्बन्धी प्रवृत्ति देखी जाती है। परन्तु यहाँपर काण्डकको आरम्भ करता हुआ क्रोधमें अपने सत्कर्मके अनन्तवें भागप्रमाण सबसे थोड़े स्पर्धक ग्रहण करता है । इसी प्रकार मानादिकमें भी विशेष अधिक क्रमसे काण्डकको आरम्भ करता है, क्योंकि अन्यथा घात करनेके बाद शेष रहे अनुभागका लोभादिकी परिपाटीके अनुसार अश्वकर्णके आकाररूपसे अवस्थान नहीं बन सकता है। अथवा अपूर्व स्पर्धक आदिकी विधिसे आगे क्षपित किये जानेपर जिसका अनुभागसत्कर्म मन्दोदयरूप होकर पीछे क्षपित किया जाता है उसके बहुत अनुभागसत्कर्मका घात करता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। विशेषार्थ-यहां क्रोधसंज्वलंनके उदयसे क्षपकोणिपर चढ़ा हुआ जीव विवक्षित है। इसके पूर्व चारों संज्वलनोंका अनुभागसत्कर्म मान, क्रोध आदि क्रमसे उत्तरोत्तर अधिक होता है। परन्तु यह जीव घातके लिए अपने-अपने जिस अनुभागकाण्डकको आरम्भ करता है उसका प्रमाण क्रोध, मान, माया और लोभके क्रमसे उत्तरोत्तर अधिक-अधिक होता है। कारणका निर्देश टीकाकारने किया ही है। $ ४४४. अब आरम्भ किये गये काण्डकघातसे शेष बचे हुए अनुभागका क्रोधादि संज्वलनों में किस प्रकार अवस्थान होता है इस प्रकार इस बातको स्पष्ट करनेके लिये अल्पबहुत्वके तीसरे प्रकारको कहते हैं * परन्तु आरम्भ किये गये काण्डकघातोंसे शेष रहे स्पर्धक लोभमें सबसे थोड़े १. ता० कोहमाणमायालोहेसु इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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