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________________ ३२९ पढमसमए णिवत्तिदअपुवफद्यपरूवणा * एसा परूवणा पढमसमयअस्सकण्णकरणकारयस्स । $ ४४६. सुगममेदं पुव्वुत्तत्थोवसंहारवक्कं ।। * तम्मि चेव पढमसमए अपुव्वफदयाणि णाम करेदि । $ ४४७. तम्मि चेव अस्सकण्णकारयस्स पढमसमए चदुण्हं संजलणाणमपुवफद्दयाणि कादुमाढवेदि त्ति मणिदं होइ । काणि अपुव्वफद्दयाणि णाम ? संसारावत्थाए पुव्बमलद्धप्पसरूवाणि खवगसेढीए चेव अस्सकण्णकरणद्धाए समुवलन्भमाणसरुवाणि पुन्वफद्दएहिंतो अणंतगुणहाणीए ओवट्टिज्जमाणसहावाणि जाणि फद्दयाणि ताणि अपुव्वफद्दयाणि ति भणंते । जइ एवं, पुन्वफद्दएहितो अणंतगुणहाणीए ओबट्टिज्जमाणस्सविसेसाणमेदेसि किट्टिसण्णा किण्ण कीरदि त्ति ? णासंकणिज्जं, किट्टीलक्खणपरिहारेण फद्दयलक्खणे समवहिदाणमेदेसिं फद्दयववएससिद्धीए गायोववण्णत्तादो। तं कधं ? अविभागपडिच्छेदुत्तरकमेण जत्थ पड्डि-हाणिसंभवो ताणि ६३ ३२ ६३ ३२ ३ । यहाँ उक्त काण्डकोंके नीचे मान, माया और लोभका ३२ जो अधस्तन अनुभागसत्कर्म बचा है उसके बहुभागसत्कर्म १६, २४ और २८ को भी उक्त काण्डकोंमें मिला देनेपर क्रमसे क्रोधादि चारोंके काण्डकोंका मिलाकर यह प्रमाण प्राप्त होता है६४ ७९ ८९ ९४ है। पुनः इन काण्डकोंका अश्वकर्णकरणके द्वारा पतन होनेपर उसके प्रथम समयमें क्रोधादि चारोंका अनुभागसत्कर्म क्रमसे ३२ १६ ८ ४ रह जाता है यह जयधवला टोका और उसमें निर्दिष्ट संदृष्टिका आशय है। * यह प्रथम समयवर्ती अश्वकर्णकरणकारककी प्ररूपणा है । $ ४४६. पूर्वोक्त अर्थका उपसंहार करनेवाला यह वचन सुगम है। * उसी प्रथम समयमें अपूर्व स्पर्धकोंको करता है। $ ४४७. उसी अश्वकर्णकरणकारकके प्रथम समयमें चारों संज्वलनोंके अपूर्व स्पर्धक करनेके लिये आरम्भ करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-अपूर्वस्पर्धक किन्हें कहते हैं ? समाधान-पहले संसार अवस्थामें जिनका स्वरूप उपलब्ध नहीं हुआ है, क्षपकौणिमें ही अश्वकर्णकरणके कालमें जिनका स्वरूप उपलब्ध होता है और जो स्पर्धक पूर्व स्पर्धकोंमेंसे अनन्तगुणी हानिके द्वारा अपवयंमान स्वभाववाले हैं उनको अपूर्वस्पर्धक कहते हैं। शंका-यदि ऐसा है तो पूर्व स्पर्द्धकोंमेंसे अनन्तगुणी हानिके द्वारा अपवर्त्यमान अनुभागविशेषवाले इन स्पर्धकोंकी कृष्टिसंज्ञा क्यों नहीं की जाती है । ___समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि कृष्टिके लक्षणसे रहित तथा स्पर्धकके लक्षणसे युक्त इनके स्पर्धक व्यपदेशको सिद्धि न्यायसे बन जाती है। शंका-वह कैसे? ४२
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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