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________________ ३२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ४३०. संपहि चउत्थभासगाहाए जहावसरपत्तमत्थविहासणं कुणमाणो इदमाह * एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्त्तिणा । $ ४३१. सुगमं । (१०८) ओवट्टणमुव्वद्दण किट्टीवज्जेसु होदि कम्मसु । ओवट्टणा च णियमा किट्टीकरणम्हि बोद्धव्वा ॥१६१।। ४३२. तीहिं मासगाहाहिं मूलगाहापुव्व-पच्छद्धेसु विहासिदेसु पुणो किमट्ठमेसा चउत्थी भासगाहा समोइण्णा ? एदम्मि विसये ओकड्डक्कड्डणाओ दो वि पयद॒ति । एदम्मि च विसये उक्कड्डणापरिहारेणोकड्णा चेव पयदि त्ति एवंविहस्स विसयविभागस्स परूवणट्ठमेसा चउत्थी भासगाहा समोइण्णा । ४३३. तं जहा- 'ओवट्टणमुव्वट्टण' एवं भणिदे ओकड्डुक्कडणाओ दो वि अण्णोण्णसहगदाओ किट्टीवज्जेसु चेव कम्मेसु होंति ति दन्वाओ, किट्टीकरणद्धादो हेट्टा चेव दोण्हमेदेसि करणाणमण्णोण्णसहगयाणं पवुत्तिणियमदंसणादो । 'ओवट्टणा य णियमा' एवं भणिदे ओकड्डणा चेव किट्टीकरणावत्थाए भवदि, उक्कड्डणा णस्थि अनुभागकी अपेक्षा प्रदेशपुजका उक्त प्रकार अल्पबहुत्व बन जाता है। परन्तु श्रेणिके नीचे सर्वत्र विशुद्धि संक्लेशकी अपेक्षा घोलमान मध्यम परिणाम होता है, इसलिए उत्कर्षण और अपकर्षण में सदृशता बनी रहती है। शेष कथन सुगम है। $ ४३०. अब चौथी भाष्यगाथाकी यथावसर प्राप्त अर्थविभाषा करते हुए यह कहते हैं* यह चौथी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना है । $ ४३१. यह सूत्र सुगम है। (१०८) कृष्टिकरणसे रहित कर्मों में अपवर्तना और उद्वर्तना दोनों होते हैं। किन्तु कृष्टिकरणमें नियमसे मात्र अपवर्तना जाननी चाहिये ॥१६॥ ४३२. शंका-तीन भाष्यगाथाओंके द्वारा मूलगाथाके पूर्वार्ध और उत्तरार्धकी विभाषा कर देनेपर पुनः यह चौथी भाष्यगाथा किसलिए अवतीर्ण हुई है ? समाधान-इस विषयमें अपकर्षण और उत्कर्षण दोनों ही प्रवृत्त होते हैं और इस विषयमें उत्कर्षणको छोड़कर मात्र अपकर्षण ही प्रवृत्त होता है इस प्रकार इस प्रकारके विषयविभागकी प्ररूपणा करनेके लिए यह चौथी भाष्यगाथा अवतीर्ण हुई है। $ ४३३. वह जैसे 'ओवट्टणउव्वट्टण' ऐसा कहनेपर अपकर्षण और उत्कर्षण दोनों ही कृष्टिरहित कर्मोंमें परस्पर एक साथ ही प्रवृत्त होते हैं ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि कृष्टिकरणके कालके नीचे ही परस्पर एक साथ प्रवृत्त इन दोनों करणोंकी प्रवृत्तिका नियम देखा काता है। 'ओवट्टणा य णियमा' ऐसा कहनेपर कृष्टिकरण अवस्थामें मात्र अपकर्षण
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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