SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१९ खवगसेढीए सत्तममूलगाहाए तदियभासगाहा पहुच बढीदो हाणी तुल्ला वा विसेसाहिया वा विसेसहीणा वा अवट्ठाणमसंखेज्जगुणं । $ ४२९. एतदुक्तं भवति - मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो ति ताव एदेसिं सव्वेसि पि णाणेगद्विदीओ पडुच्च पयदप्पा बहुए कीरमाणे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तभागहारेण गहिदपदेसग्गस्स जइ मज्झिमपरिणामो कारणं भवदि, तो हेडोवरि णिसिंचमाणमोकड्डुक्कड्डुणादव्वं सरिसं चैव होदि, तत्थ विसरिसत्ते कारणावलंभादो | अध विसोहिपरिणामो भवदि तो हेट्ठा ओकड्डिज्जमाणदव्वं बहुगं होदि, उवरि उक्कड्डिज्जमाणदव्वं थोवं होइ । जइ पुण संकिलेसपरिणामो भवदि तो उवरि णिसिंचमाणदव्वं बहुअं होदि, हेट्ठा ओकड्डिज्जमाणं थोवं भवदि, तेण वड्डीदो हाणी सरिसा वा विसेसाहिया वा विसेसहीणा वा होदूण लब्भइ । हाणीदो वि. वड्डी एवं चैव होण लम्भदि । एत्थ वडि-हाणीणं हीणाहियपमाणमसंखेज्जदिभागमेत्तं चेव होइ त्ति घेत्तव्वं ? वड्डि-हाणीहिंतो पुण अवट्ठाणं णियमा असंखेज्जगुणं चेव होदि, तत्थ पयारंतरासंभवादो । करणाहिमुहस्स पुण उक्कडुणादो ओकडुणा असंखेज्जगुणा ति दट्ठव्वा, तत्थ पयारंतरासंभवादो । एवं तदियभासगाहाए अत्थविहासा समचा । स्थितिकी अपेक्षा वृद्धिसे हानि तुल्य भी है, विशेष अधिक भी है और विशेष हीन भी है, किन्तु अवस्थान असंख्यातगुणा है । S ४२९. इसका यह तात्पयं है कि मिथ्यादृष्टियोंसे लेकर अप्रमत्तसंयत जीवोंतक तो इन सभी जीवोंके नाना स्थितियों अथवा एक स्थितिको आलम्बन कर प्रकृत अल्पबहुत्वके करनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहारके द्वारा ग्रहण किये गए प्रदेशपु जका यदि मध्यम परिणाम कारण है तो नीचे और ऊपर सिंचित होनेवाला अपकर्षण और उत्कर्षणका द्रव्य सदृश ही होता है, क्योंकि उसमें विसदृशताका कारण नहीं पाया जातां । यदि विशुद्धिरूप परिणाम होता है तो नीचे अपकर्षित होनेवाला द्रव्य बहुत बड़ा होता है और ऊपर उत्कर्षित होनेवाला द्रव्य थोड़ा होता है । परन्तु यदि संक्लेशपरिणाम होता है तो ऊपर सिंचित होनेवाला द्रव्य बहुत होता है और नीचे अपकर्षित होनेवाला द्रव्य स्तोक होता है, इसलिए उक्त गुणस्थानों में वृद्धिकी अपेक्षा हानि सदृश, विशेष अधिक या विशेष हीन होकर प्राप्त होती है। तथा हानिकी अपेक्षा वृद्धि भी इसी प्रकार होकर प्राप्त होती है । यहाँपर वृद्धि और हानिका हीनाधिकप्रमाण असंख्यातवें भागमात्र ही होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये । परन्तु उक्त गुणस्थानमें वृद्धि और हानिकी अपेक्षा अवस्थान नियमसे असंख्यातगुणा ही होता है, क्योंकि उसमें अन्य कोई प्रकार सम्भव नहीं है । किन्तु करणों अभिमुख हुए जीवके तो उत्कर्षणसे अपकर्षण असंख्यातगुणा होता है यह जानना चाहिये, उसमें अन्य कोई प्रकार असम्भव है । इस प्रकार तीसरी भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त हुई । · विशेषार्थ — चौथे; पाँचवें और सातवें गुणस्थानके सन्मुख हुए जीवके विशुद्धि में वृद्धि होनेसे सर्वत्र वृद्धिरूप विशुद्धिको लिये हुए विशुद्ध परिणाम ही होता है, इसलिए वहाँ स्थिति और •
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy