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________________ खवगसेढीए सत्तममूलगाहाए विदियभासगाहा ३१३ जहण्णाइच्छावणाणिक्खेवमेत्तफद्दयाणि उल्लंघिदूण तदुवरिमफद्दय पहुडि जाब उक्कस्साफद्दयमिदि ताव एदेसिमणंताणं फहयाणमोकडणा होदि ति एसो अणुभागोकडणाए सब्भावत्थो दट्ठव्वो । $ ४११. संपहि उक्कडणाए वि सन्भावत्थपदुप्पायणट्ठमिदमाह– * चरिमफद्दयं ण उक्कडुदि । एवमणंताणि फक्ष्याणि चरिमफद्द यादो ओसक्कियण तं फद्दयमुक्कडुदि । $ ४१२. चरिमफद्दयादो जहण्णा इच्छावणाणिक्खेवमेत्तफद्दयाणि हेट्ठा ओसरिदूदयमादि काण हेट्ठिमासेसफद्दयाणि उक्कड्डिज्जंतिं त्ति भणिदं होदि । लेकर जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेपप्रमाण स्पर्धकोंको उल्लंघन कर उनसे ऊपरके स्पर्धकसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तकके इन अनन्त स्पर्धकोंका अपकर्षण होता है इस प्रकार यह अनुभागविषयक अपकर्षण में सद्भावरूप अर्थ जानना चाहिये । विशेषार्थ - प्रकृतमें जिन स्पर्धकोंमें अपकर्षित द्रव्यका पतन होता है उनकी निक्षेप संज्ञा है और निक्षेपके ऊपरके जिन स्पर्धकोंमें अपकर्षित स्पर्धकका पतन नहीं होता उनकी अतिस्थापना संज्ञा है। इससे स्पष्ट है कि उसी स्पर्धकका अपकर्षण होना सम्भव है जिसके नीचे कमसे कम जघन्य अतिस्थापनारूप स्पर्धक होकर उनके भी नीचे जघन्य निक्षेपरूप स्पर्धक होते हैं । अनुभागविषयक अपकर्षणकी यह तथ्यपूर्ण प्ररूपणा है, इसीलिये इसे सूक्ष्म सद्भावप्ररूपणा कहा गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । $ ४११. अब उत्कर्षणविषयक भी सद्भाव अर्थकी प्ररूपणा करनेके लिए इस सूत्रको कहते हैं * अन्तिम स्पर्धक उत्कर्षित नहीं किया जाता । इस प्रकार उस स्पर्ध कसे अनन्त स्पर्धक नीचे उतरकर जो स्पर्धक अवस्थित है वह स्पर्धक उत्कर्षित किया जाता है । $ ४१२. अन्तिम स्पर्धकसे जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेपप्रमाण स्पर्धक नीचे उतरकर स्थित हुए स्पर्धकको आदि कर नीचेके स्पर्धक उत्कर्षित किये जाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । विशेषार्थ - जो अन्तिम स्पर्धक है उस सहित उसके नीचे अनन्त स्पर्धक निक्षेपरूप होते हैं जिनमें उत्कर्षित स्पर्धकका निक्षेप होता है । तथा उन निक्षेपरूप स्पर्धकोंके नीचे उनसे लगकर अनन्त स्पर्धक अतिस्थापनारूप होते हैं जिनमें उत्कर्षित स्पर्धकका निक्षेप नहीं होता । इसके बाद उन अतिस्थापना रूप स्पर्धकोंके नीचे उनसे लगकर वह स्पर्धक होता है जिसका उत्कर्षण विवक्षित है । इसी प्रकार उस स्पर्धकके नीचे उस कर्मसम्बन्धी और अनन्त स्पर्धक हैं उनके विषयमें भी यही व्यवस्था जाननी चाहिये । इतनी विशेषता है कि एक तो उदयावलिके भीतर स्थित हुए स्पर्धकोंका उत्कर्षण नहीं होता । तथा जिस नवीन बन्धमें उत्कर्षण होता हैं उसकी आबाधाप्रमाण स्थितिमें उन उत्कर्षित स्पर्धकोंका निक्षेप नहीं होता । इसी प्रकार तत्काल बन्धको प्राप्त हुए कर्मस्पर्धक बन्धावलि कालतक उत्कर्षण और अपकर्षण दोनोंके अयोग्य होते हैं । ४०
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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