SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $ ४१३. संपहि अणु मागोकड्डुक्कड्डणाविसयजहण्णुक्कस्साइच्छावणाणिक्खेबादिषदाणमप्पाबहुअं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ — ३१४ * उक्कडुणादो ओकड्डणादो च जहण्णगो णिक्खेवो थोवो । $ ४१४. सुगमं । * जहणिया अधिच्छ्रावणा ओकड्डणादो च उक्कड्डणादो च तुल्ला अनंतगुणा । $ ४१५. सुगमं । * वाघादेण ओकड्डणादो उक्कस्सिया अधिच्छ्रावणा अनंतगुणा । $ ४१६. किं कारणं १ चरिमेगवग्गणाए ऊणुक्कस्साणुभागखंडयपमाणत्तादो । कत्थेदं घेप्पदे ? संसारावत्थाए उक्कस्साणुभागं बंधियूण पडिभग्गो होतॄण विसोहिमावूरिय सव्वक्कस्स मणुभागखंडयं घादेमाणस्स घेत्तव्वं । * अणुभागखंडय मेगाए वग्गणाए अदिरित्तं । $ ४१७. कुदो ? चरिमवग्गणाए वि एत्थ पवेसदंसणादो । बन्धावलि काल के बाद सत्त्वस्पर्धकोंके सिवाय नवीन बन्धका आबाधाके भीतर अपकर्षण होकर वहाँ उन नवीन बन्ध अपकर्षित स्पर्धकोंका भी यथानियम उत्कर्षण होना सम्भव है । इस प्रकार यह अनुभाग उत्कर्षणविषयक सामान्य प्ररूपणा है । इस सूत्र गाथा में व्याघातविषयक प्ररूपणाका निर्देश नहीं किया गया है इतना यहाँ विशेष जानना । $ ४१३. अब अनुभागसम्बन्धी अपकर्षण और उत्कर्षणविषयक जघन्य और उत्कृष्ट अतिस्थापना और निक्षेप आदि पदों के अल्पबहुत्वका निर्देश करते हुए आगे के सूत्रप्रबन्धको कहते हैं— * उत्कर्षण और अपकर्षणकी अपेक्षा जघन्य निक्षेप सबसे स्तोक है । $ ४१४. यह सूत्र सुगम है । * इससे अपकर्षण और उत्कर्षणकी अपेक्षा दोनोंकी जघन्य अतिस्थापना तुल्य होकर अनन्तगुणी है । $ ४१५. यह सूत्र सुगम है।. * इससे व्याघातकी अपेक्षा अपकर्षणसम्बन्धी उत्कृष्ट अतिस्थापना अनन्तगुणी है। $ ४१६. शंका - इसका क्या कारण है ? समाधान — क्योंकि यह अन्तिम एक वर्गणासे ऊन उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकप्रमाण है । शंका- कहाँपर इसकी प्राप्ति होती है ? समाधान - संसार अवस्थामें उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध कर तदनन्तर प्रतिभग्न होकर तथा विशुद्धिको पूरा कर सबसे उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकका घात करनेवालेके इसे ग्रहण करना चाहिये । * अनुभागकाडक एक वर्गणासे अधिक होता है । $ ४१७. क्योंकि अन्तिम वर्गणाका अनुभागकाण्डकमें प्रवेश देखा जाता है । ..
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy