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________________ ३१२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे दस्स सब्भावत्थं विहासेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ * सम्भावसण्णं वत्तइस्सामो । ६४०६. ट्ठिदिविवक्खमकादूण अणुभागं चेव पहाणभावेण घेत्तूण तव्विसयाणमोकड्डुक्कड्डणाणं पवृत्तिक्कमणिरूवणं सब्भावसण्णा णाम । तमिदाणिं वत्तइस्सामो त्ति वृत्तं होइ। * तं जहा। $ ४०७ गग। * पढमफद्दयप्पहुडि अणंताणि फद्दयाणि ण ओकडिज्जंति । ४०८. किं कारणं ? तेमिमइच्छावणणिक्खेवविसयासंभवादो। * ताणि केत्तियाणि । ४०९. सुगमं । * जत्तियाणि जहाणअधिच्छावणफयाणि जहण्णणिक्खेवफदयाणि च तत्तियाणि । * तदो एत्तियमेत्तियाणि फयाणि अधिच्छिदूण तं फद्दयमोक डिजदि। एवं जाव चरिमफदयं ति ओकड्डदि अणंताणि फदयाणि । ४१०. एदेसिं सुत्ताणमवयवत्थपरूनणा सुगमा, तम्हा आदीदो प्पहुडि सद्भाव अर्थकी विभाषा करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * अब सद्भाव संज्ञावाले अर्थको बतलावेंगे । ६४०६. स्थितिकी विवक्षा न करके अनुभागको ही प्रधानरूपसे ग्रहण कर तद्विषयक अपकर्षण और उत्कर्षणकी प्रवृत्ति क्रमकी प्ररूपणा करना सद्भावसंज्ञक प्ररूपणा है । उसे इस समय बतलावेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * वह जैसे। ६४०७. यह सूत्र सुगम है। * प्रथम स्पर्धकसे लेकर अनन्त स्पर्धक अपकर्षित नहीं किये जाते हैं। $ ४०८. क्योंकि उनके अतिस्थापना और निक्षेप असम्भव हैं। * वे कितने हैं। $ ४०९. यह सूत्र सुगम है। * वे जितने जघन्य अतिस्थापनास्पर्धक हैं और जितने जघन्य निक्षेपस्पर्धक हैं उतने हैं। * इसलिये एतावन्मात्र स्पर्धकोंको अतिस्थापित कर ऊपरके उस स्पर्धकको अपकर्षित करता है। * इस प्रकार अन्तिम स्पर्धकतक अनन्त स्पर्धकोंको अपकर्षित करता है। $ ४१०. इन सूत्रोंक अवयवोंसम्बन्धी अर्थकी प्ररूपणा सुगम है, इसलिये आदि स्पर्धकसे
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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