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________________ भाग-14 ३०५ खवगसेढीए सत्तममूलगाहाए पढमभासगाहा ६३८७. सुगम । (१०५) प्रोवदि हिदिं पुण अधिगं हीणं च बंधसमगं वा । उक्कडुदि बंधसमं हीणं अधिगं ण वड्ढेदि ॥१५८॥ $ ३८८. एदिस्से पढमभासगाहाएद्धे पुव्वण वि द्विदिओकड्डणाए पवुत्तिकमो जाणाविदो । पच्छद्धेण वि द्विदिउक्कड्डणाए पवुत्तविसेसो परूविदो दट्टयो । तं कधं ? 'ओवट्टेदि डिदिं पुण' एवं भणिदे द्विदिमोकड्ड माणो बंधसममेव कादणोकड्डदि त्ति णत्थि णियमो, किंतु बंधेण सरिसं वा हीणं वा अहियं वा कादणोकडदि त्ति एसो अत्थविसेसो जाणाविदो ? तेण उवरिमाओ इच्छिदणिसेगद्विदीओ ओकड्ड माणो बंधग्गद्विदीए सरिसं पि कादूणोकड्डिएं लहदि त्ति बंधग्गद्विदीदो हेट्ठिमबज्झमाणाबज्झमाणणिसेगट्ठिदिसरूवेण वि ओकड्डिदु लहदि । पुणो बंधग्गट्टिदीदो उवरिमसंतट्ठिदिसरूवेण च समयाविरोहेणोकड्डिएं लहदि त्ति एसो गाहापुव्वद्धे सुत्तत्थसमुच्चओ। अधवा बंधादो उवरिमअहियसंतकम्मं वि हेट्ठा समयाविरोहेणोकड्डदि, हीणं पि बंधपढमणिसेयादो हेद्विमआवाहब्भंतरट्टिदिसंतकम्म पि ओकड्डदि । तहा बंधपढमणिसेगमादि कादूण $ ३८७. यह सूत्र सुगम है। , (१०५) स्थितिका अपकर्षण करता हुआ बन्धसे अधिक स्थितिका भी अपकर्षण करता है, बन्धसे हीन स्थितिका भी अपकर्षण करता है और बन्धके समान स्थितिका भी अपकर्षण करता है । तथा स्थितिका उत्कर्षण करता हुआ बन्धके समान स्थितिका भी अपकर्षण करता है और बन्धसे हीन स्थितिका भी उत्कर्षण करता है, मात्र बन्धसे अधिक स्थितिका उत्कर्षण नहीं करता ॥१५८॥ ३८८. इस प्रथम भाष्यगाथाके पूर्वार्धके द्वारा स्थिति अपकर्षणकी प्रवृत्तिके क्रमका ज्ञान कराया गया है। तथा उत्तरार्धके द्वारा स्थितिउत्कर्षणके प्रवृत्तिविशेषकी प्ररूपणा जाननी चाहिये। शंका-वह कैसे ? समाधान-'ओवट्टेदि ट्ठिदिं पुण' ऐसा कहनेपर स्थितिका अपकर्षण करता हुआ बन्धके समान करके ही स्थितिको अपकर्षित करता है ऐसा कोई नियम नहीं है। किन्तु बन्धके समान, हीन या अधिक करके भी स्थितिका अपकर्षण करता है इस अर्थविशेषका ज्ञान कराया गया है। इसलिये उपरिम इच्छित निषेक-स्थितियोंका अपकर्षण करता हआ तत्काल बन्धकी अग्रस्थितिके समान सत्त्वस्थितिको करके भी उसका अपकर्षण करता है, तत्काल बन्धकी अग्रस्थितिसे अधस्तन बन्ध्यमान और अवध्यमान निषेकस्थितिस्वरूपसे भी उनका अपकर्षण करता है। तथा तत्काल बन्धकी अग्रस्थितिसे उपरिम जो सत्कर्मकी स्थिति है उस रूपसे भी आगमके अविरोधपूर्वक उसका अपकर्षण करता है। इस प्रकार यह गाथाके पूर्वार्धमें निबद्ध सूत्रके अर्थका समुच्चय है। अथवा तत्काल बन्धसे ऊपर जो अधिक सत्कर्म है उसका नीचे आगमके अविरोधपूर्वक अपकर्षण करता है, तथा जो नीचे आबाधाके भीतरका स्थितिसत्कर्म तत्काल बन्धके प्रथम निषेकसे हीनस्थितिवाला ३९.
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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