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________________ ३०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे जाव बंधग्गहिदीए समाणं होतॄण द्विदिबंधस रिससंतद्विदीओ वि ओकडूदि चि एसो एत्थ सुतत्संगहो । $ ३८९. 'उक्कडदि बंधसमं' एवं भणिदे ट्ठिदिमुक्कड्डे माणो बंधग्गट्ठिदिसमाणं काढूण उक्कड्डदि, तत्तो हीणबंधग्गट्ठिदिसमाणं पि काढूण उक्कड्डदि बंधादो पुण उवरिम-अहियट्ठिदिसंतकम्मसमाणं काढूण णियमा ण उक्कड्डदि, बंधे उक्कणानियमदंसणादो | अधवा बंधसरिसट्ठिदीओ वि बंधसममुक्कड्डदि, बंधादो हीणट्ठिदीओ वि आबाहभंतरिमाओ बंधसरूवेणुक्कड्डदि, बंधादो उवरिमसंतट्टिदीओ णियमा ण उक्कड्डदि ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंग हो, 'बंधसमं हीणं च उक्कड्डदि', अहियं पुण ण उक्कड्डदि ति सुत्ते पदसंबंधावलंबणादो । $ ३९०. संपहि एवंविहमेदिस्से पढममा सगाहाए अत्थं विहासेमाणो विहासागंधमुत्तरमाह है उसका भी अपकर्षण करता है तथा जो सत्कर्म तत्काल बन्धके प्रथम निषेकसे लेकर तत्काल बन्धक अग्रस्थितिके समान है उस स्थितिबन्धके सदृश सत्कर्म स्थितियोंका भी अपकर्षण करता है इस प्रकार यह यहाँ सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । विशेषार्थ - स्थिति अपकर्षणके लिये सामान्य नियम यह है कि उदयावलिके भीतरकी सत्त्वस्थितियोंका अपकर्षण नहीं होता तथा तत्काल बन्धस्थितियोंका बन्धावलि काल जानेतक अपकर्षण नहीं होता । इन दो नियमोंको छोड़कर जो भी कर्म हैं वे तत्काल बन्धकी अग्रस्थितिसे हीन स्थितिवाले हों, समान स्थितिवाले हों या अधिक स्थितिधाले हों तो उनका समय के अविरोधपूर्वक अपकर्षण हो सकता है यह विवक्षित गाथासूत्र 'ओकड्डेदि ट्टिदि पुण' इत्यादि गाथाके पूर्वार्धका समुच्चयरूप एक अर्थ है । दूसरा अर्थ करते हुए तत्काल बन्धस्थितिसे नीचे की सत्कर्म स्थितिको बतलाते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि 'यदि सत्कर्मकी स्थिति तत्काल बन्धकी आधा से भी कम शेष रही हो तो भी उसका अपकर्षण होना सम्भव है । यह उक्त गाथासूत्र के पूर्वार्ध में निबद्ध अर्थका खुलासा है । यहाँ समयके अविरोधपूर्वक इसका अन्वय अपकर्षणसम्बन्धी सब विकल्पोंको स्पष्ट करते हुए कर ले इतना यहाँ विशेष जानना चाहिये । $ ३८९. 'उक्कड्डुदिबंध समं' ऐसा कहनेपर स्थितिका उत्कर्षण करते हुए नवीन स्थिति बन्धकी अग्रस्थितिको समान करके उत्कर्षण करता है। उससे हीन नवीन स्थितिबन्धको अग्र स्थितिको समान करके भी उत्कर्षण करता है, परन्तु नवीन बन्धसे उपरिम अधिक स्थितिसत्कर्मको समान करके नियमसे उत्कर्षण नहीं करता, क्योंकि नवीन बन्धके भीतर उत्कर्षणका नियम देखा जाता है । अथवा नवीन बन्धके सदृश स्थितियों को भी नवीन बन्धके समान करके उत्कर्षित करता है तथा नवीन बन्धसे हीन आबाधा कालके भीतरकी सत्कर्म स्थितियोंको नवीन बन्धस्वरूपसे उत्कर्षित करता है, मात्र नवीन बन्धसे उपरिम सत्कर्म स्थितियोंको नियमसे उत्कर्षित नहीं करता है यह यहाँ इस मूलगाथा सूत्रका समुच्चयार्थ है, क्योंकि 'बंधसमं हीणं च उक्कड्डुदि, अहि उक्कडुदि' इस प्रकार इस सूत्र में स्थित पदोंका अवलम्बन लिया गया है । ४ ३९०. अब इस प्रकार इस प्रथम भाष्यगाथाके अर्थका खुलासा करते हुए आगे विभाषाग्रन्थको कहते हैं—
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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