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________________ २८६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे किंचि ण उक्कड्डिज्जदि त्ति एवं वडीए भजिदच्वं, अबट्ठाणे वि ओकड्डिदपदेसग्गं किंचि सत्थाणे चेव अच्छदि, किंचि अण्णं किरियं गच्छदि त्ति भयणिज्जं । एवमोकड्डणाए संकमोदएहिं भयणिज्जत्तं जोजेयव्वं, ओकड्डिदविदियसमए चेव पुणो वि ओकड्डणादीणं पवुत्तीए बाहाणुवलंभादो त्ति । संपहि एदस्स चेव अस्थस्स फुडीकरणमुवरिमविहासागंथमोदारइस्सामो * विहासा। $ ३४१. सुगमं । हिदीहिं वा अणुभागेहिं वा पदेसग्गमोकडिजदि तं पदेसम्गं से काले चेव ओकहिज्जेज वा उक्कडिज्जेज वा संकामिज्जेज वा उदीरिज्जेज्ज वा। ___ ३४२. गयत्थमेदं सुत्तं । णवरि 'हिदीहिं वा अणुभागेहिं वा' ति वुत्त कम्मपदेसाणमोकड्डणा द्विदि-अणुमागमुहेणेव होइ, णाण्णहा ति एसो अत्थविसेसो जाणाविदो । एवमेत्तिएण पबंधेण तीहिं भासगाहाहिं पंचमीए मूलगाहाए अत्थविहासं समाणिय संपहि छट्ठीए मूलगाहाए जहावसरपत्तमत्थविहासणं कुणमाणो उवरिमं सुत्तपबंधमाह भावार्थ है-अपकर्षित होनेवाले प्रदेशपुजका कुछ भाग तदनन्तर समयमें पुनः उत्कर्षित हो जाता है, कुछ भाग उत्कर्षित नहीं होता ऐसा वृद्धिके विषयमें कहना चाहिये । अवस्थानके विषयमें भी कुछ भाग स्वस्थानमें ही अवस्थित रहता है तथा कुछ अन्य क्रियाको प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार यह भजनीय है। इसी प्रकार अपकर्षण, संक्रम और उदयकी अपेक्षा भजनीयपनेकी योजना कर लेनी चाहिये, क्योंकि अपकर्षित होनेके दूसरे समयमें ही फिर अपकर्षण आदिकी प्रवृत्ति होनेमें कोई बाधा उपलब्ध नहीं होती। अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिये आगेके विभाषाग्रन्थका अवतार करते हैं * अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। ६३४१. यह सूत्र सुगम है। * स्थितियोंके द्वारा अथवा अनुभागोंके द्वारा जिस प्रदेशपुंजका अपकर्षण किया जाता है उस प्रदेशपुंजका अनन्तर समयमें ही अपकर्षण किया जा सकता है या उत्कर्षण किया जा सकता है, या संक्रमण किया जा सकता है या उदीरणा की जा सकती है। 5 ३४२. यह सूत्र गतार्थ है। इतनी विशेषता है कि 'ट्ठिदीहिं वा अणुभागेहिं वा' ऐसा कहनेपर कर्मप्रदेशोंकी अपकर्षणा स्थिति और अनुभागमुखसे ही होती है, अन्य प्रकारसे नहीं, इस प्रकार उक्त पदों द्वारा इस अर्थका ज्ञान कराया गया है। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा तीन भाष्यगाथाओंका अवलम्बन लेकर पांचवीं मूलगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त कर अब छटी मूलगाथाके अवसर प्राप्त विभाषाको करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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