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________________ खवगसेढीए पंचममूलगाहाए तदियभासगाहा २८५ पुन्वद्धो चेव विहासिदो । गाहापच्छद्धविहासा एदेणेव गयत्था त्ति णाढत्ता, आवलिय. मेतकालं णिरुवक्कमभावे परूविदे तत्तो परमोकड्डणादिकिरियाहिं भयणिज्जभावस्स मंदबुद्धीणं पि सुहावगम्मत्तादो। एवं विदियभासगाहाए विवरणं कादूण संपहि तदियभासगाहाए अवयारं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एत्तो तदियाए भासगाहाए समुकित्तणा । ३३९. सुगमं । (१०१) ओकादि जे अंसे से काले ते च होंति भजियव्वा। वड्ढीए अवट्ठाणे हाणीए संकमे उदए ॥१५४।। 5 ३४०. एदीए मासगाहाए जहा उक्कड्डिदपरमाणूणं परपयडीसु संकामिदपरमाणूणं च आवलियमेत्तकालं णिरुवक्कमभावेणावट्ठाणणियमो, ण एवमोकड्डिदपदेसग्गस्स, किंतु ओकड्डिदविदियसमए चेव पुणो वि ओकड्डिदुमुक्कड्डिदुमण्णपयडिं संकामेदुमुदीरेदुं च संभवो अस्थि त्ति एसो अत्यविसेसो जाणाविदो । तं जहा'ओकडडदि जे अंसे' एवं भणिदे जाणि कम्माणि द्विदि-अणभागेहिं ओकडूडदि ताणि से काले चेव वड्डि-हाणि-अवट्ठाण-संकमोदीरणाहिं भजियव्वाणि त्ति वृत्तं होइ । एदस्स भावत्थो-ओकड्डिदपदेसग्गं किंचि तदणंतरसमए चेव पुणो उक्कड्डिज्जदि, अन्य कथन सुगम है। इस सूत्र द्वारा गाथाके पूर्वार्धकी ही विभाषा की गई है। गाथाके उत्तरार्धकी विभाषा इसी सूत्रसे ही गतार्थ है, इसलिये उसकी प्ररूपणा अलगसे आरम्भ नहीं की है, क्योंकि एक आवलिप्रमाण कालतक संक्रमित या उत्कर्षित द्रव्यके निरुपक्रमरूपसे प्ररूपित करनेपर उसके बाद अपकर्षणादि क्रिया भजनीय है इसका मन्दबद्धि जीव भी सखपूर्वक ज्ञान कर लेते हैं। इस प्रकार दूसरी भाष्यगाथाका विवरण करके अब तीसरी भाष्यगाथाका अवतार करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * आगे तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं। $३३९. यह सूत्र सुगम है। (१०१) स्थिति और अनुभागके द्वारा जो कर्मपुंज अपकर्षित किये जाते हैं वे तदनन्तर समयमें वृद्धि,अवस्थान, हानि,संक्रम और उदयके विषयमें भजनीय हैं।।१५४।। 5 ३४०. जिस प्रकार उत्कर्षित हुए परमाणुओंके और संक्रमित हुए परमाणुओंके एक आवलिप्रमाण कालतक निरुपक्रमरूपसे अवस्थानका नियम है उस प्रकारका नियम अपकर्षित होनेवाले प्रदेशपुजका नहीं है, किन्तु अपकर्षित होनेके दूसरे समयमें ही फिर भी उनका अपकर्षण होना, उत्कर्षण होना, परप्रकृतियोंमें संक्रमित होना और उदीरणा होना सम्भव है इस अर्थविशेषका इस गाथा द्वारा ज्ञान कराया गया है। वह जैसे-'ओकड्डदि जे अंसे' ऐसा कहनेपर जो कर्म स्थिति और अनुभागके द्वारा अपकर्षित होते हैं वे कर्म तदनन्तर समयमें ही वृद्धि, हानि, अवस्थान, संक्रम और उदीरणाके द्वारा भजनीय हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसका यह १. ता०प्रती -पदेसग्गस्स इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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