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________________ २८४ जवधवला सहिदे कसायपाहुडे वृत्तं होइ । ' से काले' तदणंतरसमय पहुडि 'तेण परं' तत्तो उवरि 'होंति भजियव्वा' भयणिज्जा भवंति । संकमावलियमेत्तकाले वदिक्कते तत्तो परं संकामिदा उक्कड्डिदा चकम्मंसा ते वडि-हाणि - अवद्वाणादिकिरियाहिं भयणिज्जा होंति, तत्तो परं तप्पवृत्तीए पडिसेहाभावादोत्ति वुत्तं होदि । संपहि एवंविहमेदिस्से गाहाए अत्थविसेसं विहासेमाणो चुण्णिसुत्तयारो विहासागंथमुत्तरं भणइ * विहासा । $ ३३७. सुगमं । * जं पदेसग्गं परपयडीए संकामिज्जदि द्विदीहिं वा अणुभागेहिं वा उक्कडिज्जदि तं पदेसग्गमावलियं ण सक्को श्रोकडिदु वा उक्कडिदु वा कामेा । $ ३३८. जं पदेसग्गं परपयडीए संकामिज्जदि तमावलियमेत्तकालं ण सक्कमोकडिदुमुक्कडितुं संकामेदुं वा । जं च पदेसग्गमुक्कड्डिज्जदि हिंदीहिं वा अणुभागेहिं वा तं पिं आवलियमेत्तकालं ण सक्कमोकड्डिदुमुक्कड्डिदु संकामेदु वा ति पादेक्कमहिसंबंधं काढूण सुत्तत्थपरूवणा एत्थ कायव्वा । सुगममण्णं । एदेण सुत्तेण ग्राहा किये बिना जो जहाँ जिस प्रकार निक्षिप्त हुए हैं वहीं उसी प्रकार निश्चलरूपसे अवस्थित रहते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'से काले' अर्थात् तदनन्तर समयसे लेकर 'तेण परं' अर्थात् उस समय बाद वे भजियव्वा अर्थात् भजनीय हैं । तात्पर्य यह है कि संक्रमणावलिप्रमाण कालके व्यतीत होनेपर उसके बाद जो कर्मपुज संक्रमित या उत्कर्षित हुए हैं वे वृद्धि, हानि और अवस्थान आदि क्रियारूपसे भजनीय होते हैं, क्योंकि उसके बाद उनकी क्रियान्तररूपसे प्रवृत्ति होनेमें प्रतिषेधका अभाव है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इस प्रकार इस गाथाके अर्थविशेषकी विभाषा करते हुए चूर्णि सूत्रकार आगे विभाषाग्रन्थको कहते हैं— * अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं । $ ३३७. यह सूत्र सुगम है । * जो प्रदेशपुंज परप्रकृतिरूपसे संक्रमित किया जाता है या स्थिति और अनुभाग द्वारा उत्कर्षित किया जाता है वह प्रदेशपुंज एक आवलि कालतक अपअपकर्षित करनेके लिए, उत्कर्षित करनेके लिये या संक्रमित करनेके लिए शक्य नहीं है । $ ३३८. जो प्रदेशपुंज परप्रकृतिरूपसे संक्रमित किया जाता है वह एक आवलिप्रमाण कालतक अपकर्षित करनेके लिए, उत्कर्षित करनेके लिये या संक्रमित करनेके लिये शक्य नहीं है और जो प्रदेश स्थिति और अनुभागके द्वारा उत्कर्षित किया जाता है वह भी एक आवलिप्रमाण कालतक अपकर्षित करनेके लिये, उत्कर्षित करनेके लिये अथवा संक्रमित करनेके लिये शक्य नहीं है, इस प्रकार प्रत्येकके साथ सम्बन्ध करके यहाँपर सूत्रकी प्ररूपणा करनी चाहिये ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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