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________________ खवगसेढीए पंचममूलगाहाए पढमभासगाहा २७९ हिदी समवट्टिदा तिस्से ओकडिज्जमाणियाए किमइच्छावणापमाणं, किं वा णिक्खेवपमाणमिदि वृत्ते 'समयूणाए आवलियाए वे त्तिभागे एत्तिगे अइच्छावेदूण' इच्चादि वृत्तं, आवलियं समयणं काढूण पुणो तिहिं रूवेहिं भागे' हिदे तत्थ वे - त्तिभागा एदिस्से जहण्णाइच्छावणापमाणं, हेट्ठिमतिभागो च पुव्वमवणिदेगरूवेण सह जहण्णणिक्खेवपमाणं होदि ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो । संपहि एतो उवरिमाणंतरद्विदीए ओकडिज्जमाणाए अइच्छावणाणिक्खेवपमाणावहारणमुत्तरमुत्तमाह * तदो जा अणंतरज्वरिमट्ठिदी तिस्से णिक्खेवो तत्तिगो चेव, अइच्छावणा समयाहिया । ९ ३२५. कुदो १ उदयावलियबाहिराणंतरद्विदीए एत्थाइच्छावणाभावेण पवेसदंसणादो । तदो जहण्णा इच्छावणादो समयुत्तरा एदिस्से उदयावलियबाहिरविदियहिदीए अइच्छावणा होदि । णिक्खेवो पुण जहण्णओ चेवेत्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो । एतो उवरिमट्ठिदीसु वि जहण्णणिक्खेवमवट्ठिदं काढूण अइच्छावणा चेव समयुत्तरकमेण वढावेयव्वा जाव समयाहियतिभागपवेसेण संपुण्णावलियमेत्ता णिव्वा - धादविसया उक्कस्सा इच्छावणा जादा ति । तत्तो परमइच्छावणमावलियमेत्तमवट्ठिदं काढूण णिक्खेवो चेव समयुत्तरादिकमेण वढावेयव्वो जाव उक्कस्सओ णिक्खेवो समाधान — उदयसे लेकर एक समय अधिक आवलिप्रमाण जो स्थिति अवस्थित है उसका अवकर्षण करनेपर अतिस्थापनाका प्रमाण क्या है और निक्षेपका प्रमाण क्या है ऐसा कहने पर 'एक समय कम आवलिके दो- त्रिभाग इतनी स्थितिको अतिस्थापित कर' इत्यादि कहा है, क्योंकि आवलिमें एक समय कम कर पुनः तीनका भाग देनेपर वहाँ दो- त्रिभाग जघन्य अतिस्थापनाका प्रमाण होता है और पहले निकाले गये एक रूपके साथ अधस्तन त्रिभाग जघन्य निक्षेपका प्रमाण होता है इस प्रकार यहाँ सूत्रार्थ समुच्चय है । अब इससे उपरिम अनन्तर स्थितिका अपकर्षण करनेपर अतिस्थापना और निक्षेपके प्रमाणका निश्चय करनेके लिये आगे के सूत्रको कहते हैं * उससे जो अनन्तर उपरिम स्थिति है उसका निक्षेप उतना ही होता है मात्र अतिस्थापना एक समय अधिक होती है । $ ३२५. क्योंकि उदयावलिके बाहरकी अनन्तर स्थितिका भी यहाँपर अतिस्थापनारूपसे प्रवेश देखा जाता है, इसलिए जघन्य अतिस्थापनासे इस उदयावलिके बाहरकी द्वितीय स्थितिकी एक समय अधिक अतिस्थापना होती है । परन्तु निक्षेप जघन्य ही होता है इस प्रकार यह यहाँपर सूत्रार्थसंग्रह है । अब इससे आगे उपरिम स्थितियोंमें भी जघन्य निक्षेपको अवस्थित करके एक समय अधिक त्रिभागके प्रवेश द्वारा पूरी एक आवलिके प्राप्त होनेतक अतिस्थापना ही समयाधिक क्रमसे बढ़ानी चाहिये । इस प्रकार यह निर्व्याघातविषयक उत्कृष्ट अतिस्थापना हो जाती है। उससे आगे अतिस्थापनाको आवलिप्रमाण अतिस्थापित करके उत्कृष्ट निक्षेपके १. ताप्रती ( स ) रूवेहि, आ० प्रती सरूवेहि इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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