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________________ २७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे मोकड्डेमाणो जहण्णदो वि आवलियाए वे - चिभागमेत्तमइच्छाविपूण णिक्खिवदिति भणिदं होदि । 'साट्ठिदीसु जहण्णा' एवं भणिदे ठिदिविसया एसा जहण्णाइच्छावा ओकडणाविसये घेत्तन्वा त्ति वृत्तं होइ । ' तहाणुभागेसणंतेसु' एवं भणिदे अणुभागविसया ओवट्टणा जहणणे वि अनंतेसु फछएस पडिबद्धा जाव अनंताणि फद्दयाणि णाधिच्छाविदाणि ताव अणुभागविसया ओकडणा ण पयट्ठदित्ति वृत्तं हो । एत्थ विसेसणिण्णयं पुरदो कस्सामो । संपहि एदीए गाहाए सूचिदाणमत्थाणं विवरणं करेमाणो चुण्णित्तयारो विहासागंथमुत्तरमाढवेइ * विहासा । ९ ३२३. सुगमं । * जा समयाहिया आवलिया उदयादो एवमादिट्ठिदी ओकड्डिज्वदि समयूणाए आवलियाए वे त्तिभागे एत्तिगे अइच्छावेढूण णिक्खवदि । णिक्खेवो समयणाए आवलियाए तिभागो समयुत्तरो । 6 ३२४. एदेण सुत्तेण ट्ठिदिविसयाए ओकड्डणाए जहण्णाइच्छावणा-णिक्खेवाणं पमाणपरिच्छेदो कदो दट्ठव्वो । तं कथं १ उदयादो पहुडि समयाहियावलियाए जा - द्वारा शेष समस्त प्ररूपणा में देशामर्षकरूपसे इस भाष्यगाथाकी प्रवृत्ति देखी जाती है । वह जैसे'ओवट्टणा जहण्णा' ऐसा कहनेपर स्थितिका अपकर्षण करता हुआ जघन्यरूपसे भी आवलिके दो-तीन भागमात्र स्थितिको अतिस्थापित करके निक्षेप करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'एसा ट्ठिदिसु जहण्णा' ऐसा कहनेपर स्थितिविषयक यह जघन्य अतिस्थापना अपवर्तनाके विषयमें ग्रहण करनी चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है । तहाणुभागेसणंतेसु' ऐसा कहनेपर अपवर्तनाविषयक जघन्य अपवर्तना अनन्त स्पर्धकों में प्रतिबद्ध होकर भी जबतक अनन्त स्पर्धक अतिस्थापित नहीं होते हैं तबतक अनुभागविषयक अपवर्तना नहीं प्रवृत्त होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँपर विशेष निर्णय आगे करेंगे। अब इस गाथा द्वारा सूचित हुए अर्थोका विवरण करते हुए चूर्णिसूत्रकार आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं * अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं । $ ३२३. यह सूत्र सुगम है । * उदयसे लेकर एक समय अधिक आवलिको जो आदि स्थिति अपकर्षित की जाती है उसे एक समय कम आवलिके दो-तीन भागरूप इतनी स्थितिको अतिस्थापित कर निक्षिप्त करता है, अतः एक समय कम एक आवलिके एक समय अधिक त्रिभागप्रमाण निक्षेप होता है । ६ ३२४. इस सूत्र द्वारा स्थितिविषयक अपकर्षणकी जघन्य अतिस्थाना और जघन्य निक्षेपके प्रमाणकी मर्यादा की गई जानना चाहिये । शंका- वह कैसे ?
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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