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________________ २८० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे जादो त्ति । संपहि एवंविहस्स अत्थविसेसस्स फुडीकरणट्ठमुत्तरसुत्तद्दयमाह * एवं ताव अइच्छावणा वड्ढदि जाव आवलिया अधिच्छावणा जादा त्ति। ३२६. सुगमं । * तेण परमधिच्छावणा आवलिया, णिक्खेवो वड्ढदि । ६३२७. सुगमं । संपहि एत्थुक्कस्सणिक्खेवपमाणावहारणमुत्तरसुत्तमाह * उक्कस्सओ णिक्खेवो कम्महिदी दोहिं आवलियाहिं समयाहियाहिं ऊणिगा। $ ३२८. एवं भणिदे कसायाणमुक्कस्सद्विदिं चालीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तं बंधियूण पुणो बंधावलियमेत्तकाले जाव वोलेदि ताव उक्कस्सद्विदिसंतकम्ममावलियूणं भवदि । तदो से काले बंधावलियवदिक्कंतमग्गद्विदिमोकड्डियूण अग्गद्विदि मोत्तण तत्तो हेट्ठा आवलियमेत्तमइच्छाविय हेडिमहिदीसु जाव उदयट्ठिदि ति ताव णिक्खिवदि, तेण बंधावलियाए अइच्छावणावलियाए अग्गट्टिदीए च ऊणिया कम्मद्विदी उक्कस्सणिक्खेवपमाणं होदि त्ति घेत्तव्वं । णेदमेत्थासंकणिज्जं खवगसेढिविसयाए परूवणाए प्राप्त होनेतक निक्षेपको ही उत्तरोत्तर एक-एक समय अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिये । अब इस प्रकारके अर्थविशेषको स्पष्ट करनेके लिये आगेके दो सूत्रोंको कहते हैं * इस प्रकार तबतक अतिस्थापना बढ़ती जाती है जब जाकर वह अतिस्थापना एक आवलिप्रमाण हो जाती है। 5 ३२६. यह सूत्र सुगम है। * इससे आगे अतिस्थापना तो एक आवलिप्रमाण ही रहती है, परन्तु निक्षेप बढ़ता जाता है। 5३२७. यह सूत्र सुगम है। अब यहाँ उत्कृष्ट निक्षेपके प्रमाणका अवधारण करनेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं ___* उत्कृष्ट निक्षेप एक समय अधिक दो आवलियोंसे हीन कर्मस्थितिप्रमाण होता है। ____$३२८. इस सूत्रके इस प्रकार कहनेपर कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण बाँधकर पुनः जबतक बन्धावलिप्रमाण काल व्यतीत होता है तबतक उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म एक आवलि कम हो जाता है। तत्पश्चात् तदनन्तर समयमें बन्धावलिके व्यतीत होनेके बाद अग्रस्थितिका अपकर्षण करके उस अग्रस्थितिको छोड़कर उससे नीचे एक आवलिप्रमाण स्थितिको अतिस्थापित करके उदयस्थितिके प्राप्त होनेतक नीचेकी सभी स्थितियों में निक्षिप्त करता है। इसलिए बन्धावलि, अतिस्थापनावलि और अग्रस्थितिसे हीन कर्मस्थिति उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण होता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । यहाँपर ऐसी आशंका नहीं
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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