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________________ खवगसेढीए तदियमूलगाहाए पढमभासगाहा २६१ तासि समुदायसमुक्कित्तणा वि समुक्कित्तिदा चेव होइ । तदो तासि समुदायसमुक्कित्तणं मोनूण पादेक्कमुच्चारणं कुणमाणो चेव अत्थविहासणं कस्सामो त्ति भणिदं होइ । अधवा एदासिं भासगाहाणं समुक्कित्तणा असीदिसदगाहाणं मझे गाहासुत्तयारेण समुक्कित्तिदा चेव, किं कारणमेदिस्से मूलगाहाए चउण्हं भासगाहाणं तत्थंतब्भूदत्तदंसणादो। तदो तासिं समुदायसमुक्कित्तणाए विणा पादेक्कमुच्चारणापुरस्सरमत्थविहासणमेत्थ कस्सामो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसब्भावो । * तं जहा। ६ २७१. सुगमं । एवं पुच्छाविसईकयाणं चउण्हं भासगाहाणं जहाकम समुक्कित्तणमत्थविहासणं च कुणमाणो इदमाह(९०) बंधेण होइ उदओ अहिओ उदएण संकमो अहिओ। गुणसेढिी अणंतगुणा बोद्धव्वा होइ अणुभागे ॥१४३॥ $ २७२. एसा पढमभासगाहा अणुभागविसयाणं बंधोदयसंकमाणं थोवबहुत्तं परूवेदि । तं कधं ? अणुभागविसओ बंधो थोवो, बंधादो उदओ अहिओ, उदयादो संकमो अहिओ होदि। सो च अहियभावो अणंतगुणाए सेढीए होदि, णाण्णहा त्ति जाणावणटुं 'गुणसेढि अगंतगुणा' ति मणिदं होदि, बंधादीणं गुणगारसेढी उनके समुदायकी समुत्कोर्तना भी समुत्कीर्तित हो जाती है । इसलिये उनके समुदायकी समुत्कीर्तनाको छोड़कर प्रत्येकका उच्चारण करते हुए ही अर्थकी विभाषा करेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अथवा इन भाष्यगाथाओंकी समुत्कीर्तना एकसौ अस्सी गाथाओंके मध्य गाथासूत्रकारने कही ही है, क्योंकि इस मूलगाथाकी चार भाष्यगाथाओंका उन गाथाओंमें अन्तर्भाव देखा जाता है, इसलिए उनका समुदायरूप समुत्कीर्तनाके बिना ही प्रत्येकके उच्चारणपूर्वक अर्थकी विभाषा यहाँपर करेंगे इस प्रकार यह उक्त सूत्रके अर्थका तात्पर्य है। * वह जैसे। ६२७१. यह सूत्र सुगम है। इस प्रकार पृच्छाकी विषय की गईं चार भाष्यगाथाओंका क्रमसे समुत्कीर्तन और अर्थकी विभाषा करते हुए इस सूत्रको कहते हैं (९७) अनुभागविषयक बन्धसे उदय अधिक होता है और उदयसे संक्रम अधिक होता है। यहाँ अधिकका प्रमाण अनन्तगुणित श्रेणिरूप जानना चाहिये॥१४३॥ ६२७२. यह प्रथम भाष्यगाथा अनुभागविषयक बन्ध, उदय और संक्रमके अल्पबहुत्वका कथन करती है। शंका-वह कैसे? समाधान-अनुभागविषयक बन्ध सबसे स्तोक होता है। बन्धसे उदय अधिक होता है और उदयसे संक्रम अधिक होता है। तथा वह अधिकपना अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे होता है, अन्य प्रकारसे नहीं होता इस बातका ज्ञान करानेके लिये 'गुणसेढि अणंतगुणा' यह कहा है। १. प्रतिषु तत्थ तब्भूदत्त -इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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