SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे विसयाणं पि बंधसंकमोदयाणं पुच्छा कायन्वा त्ति । संपहि हीणाहियभावे वि संते तत्थ किं गुणेण हीणाहियभावो, आहो विसेसेणेति जाणावणटुं विदियो पुच्छाणिदेसो 'गुणेण किं वा विसेसेणेत्ति । एतदुक्तं भवति–पदेसाणुभागविसया बंधोदयसंकमा किमण्णोण्णं पेक्खियण जहासंभवं संखेज्जासंखेज्जाणंतगुणेण अहिया हीणा वा होंति, आहो संखेज्जासंखेज्जाणंतमागेण हीणा अहिया वा होति त्ति । तदो एवंविहत्थपरूवणाए पुच्छामुहेण एसा तदियमूलगाहा णिबद्धा त्ति सिद्धं । एत्थ वा सद्दा समुच्चयट्ठा पादपूरणट्ठा वा दट्ठव्वा । संपहि एवंविहत्थपडिबद्धाए एदिस्से तदियमूलगाहाए विहासणटुं तत्थ इमाओ चत्तारि भासगाहाओ होति, अण्णहा मूलगाहामूचिदत्थाणं फुडीकरणोवायाभावादो त्ति जाणावणट्टनुवरिमं सुत्तपबंधमाह * एदिस्से चत्तारि भासगाहाओ। $ २६९. एदिस्से तदियमूलगाहाए विहासणट्ठमेत्य चत्तारि भासगाहाओ होति त्ति भणिदं होदि। * भासगाहा समुक्कित्तणा। समुक्कित्तिदाए व अत्थविभासं भणिस्सामो। $ २७०. भासगाहाणं पादेक्कमुच्चारणं कादूण तदत्थविभासाए कीरमाणाए हैं ? इसी प्रकार प्रदेशविषयक बन्ध, संक्रम और उदयके विषयमें भी पृच्छा करनी चाहिये ? अब हीनाधिक भावके होनेपर भी प्रकृतमें गुणकाररूपसे हीनाधिकभाव होता है या विशेषरूपसे हीनाधिकभाव होता है इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'गुणेण किंवा विसेसेण' इस प्रकार दूसरी पृच्छाका निर्देश किया गया है । उक्त कथनका तात्पर्य यह है कि प्रदेश और अनुभागविषयक बन्ध, उदय और संक्रम परस्पर देखते हुए यथासम्भव क्या संख्यात, असंख्यात और अनन्तगुणे अधिक या हीन होते हैं । अथवा संख्यात, असंख्यात और अनन्तभाग हीन या अधिक होते हैं ? इसलिए इस प्रकारके अर्थकी प्ररूपणाको लक्ष्य कर पृच्छामुखसे यह तीसरी मूलगाथा निकद्ध हुई है यह सिद्ध होता है। यहाँ मूलगाथामें निबद्ध 'वा' शब्द समुच्चयरूप या पादपूर्तिके लिये जानना चाहिये। अब इस प्रकारकी अर्थकी प्ररूपणासे सम्बन्ध रखनेवाली इस तीसरी मूलगाथाकी विभाषा करनेके लिये उस विषयमें ये चार भाष्यगाथाएँ होती हैं, अन्यथा मूलगाथा के द्वारा सूचित होनेवाले अर्थों का स्पष्टीकरण करनेका अन्य कोई उपाय नहीं पाया जाता। इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेके सूत्रप्रबन'को कहते हैं * इस तीसरी मूलगाथाकी चार भाष्यगाथाएँ हैं । $ २६९. इस तीसरी मूलगाथाकी विभाषा करनेके लिए चार भाष्यगाथाएँ हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * भाष्यगाथाओंके उच्चारणका नाम उनकी समुन्कीर्तना है। इस प्रकार समुत्कीर्तना करनेपर उन भाष्यगाथाओंके अर्थका क्रमसे विशेष व्याख्यान करेंगे। $ २७०. भाष्यगाथाओंमेंसे प्रत्येकका उच्चारण करके उनके अर्थकी विभाषा करनेपर
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy