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________________ २५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे वेदादि जो पुव्वाणुपुन्वीविसओ कमो परुविदो, एदेणेव कमेण संकमो होइ, पडिलोमेण पच्छा पुव्वी संकमो णत्थि त्ति एसो अत्थो जाणाविदो । संपहि सुगमत्तादो वक्खाणसमाणाए एदिस्से णाहाए विवरणंतरं गाढवेयव्वं, किंतु गाहाबंध चेव एदिस्से विहासात पदुष्पारमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एदिस्से सुत्तपबंधो चेव विहासा । - $ २४९. एतदुक्तं भवति – विहासा हि णाम कीरदे णिगूढत्थस्स सुत्तस्स अत्थणिण्णयकरण । जत्थ पुण सुत्तबंधो चेव परिष्फुडत्थेहिं पबंधेहिं णित्रद्धो तत्थ सो चैव सुत्तबंधो वक्खाणसरिसत्तादो सुगमो त्तिण तत्थ वक्खाणंतरमाढवेयव्वं, सुगमत्थविहासाए गंथगउरखं मोत्तूण फलविसेसाणुवलंभादो ति । एवमेत्तिएण पबंघेण उन्हं भासगाहाणमाणुपुव्वीसं कमविसयाणं विहासणं काढूण संपहि मूलगाहाए तदियत्थविसये चेव अण्णं पि किंचि विसेसंतरं जाणावेमाणो गाहासुत्तमुत्तरं भणइ- (८७) जो जम्हि संछुहतो णियमा बंधसरिसम्हि संछुहइ । बंधेण हीणदरगे अहिए वा संकमो णत्थि ॥ १४०॥ $ २५०. एसा पंचमी भासगाहा बज्झमाणपयडीसु संकामिज्जमाणाणं बज्झ कमोत्थ' ऐसा कहनेपर नपुंसकवेदसे लेकर पूर्वानुपूर्वी विषयक क्रम कहा गया है । इसी क्रमसे संक्रम होता है, प्रतिलोम अर्थात् पश्चादानुपूर्वी क्रमसे संक्रम नहीं होता इस प्रकार इस अर्थका ज्ञान कराया है । अब सुगम होनेसे इस गाथाका विवरण व्याख्यानके समान ही है, अतः इसका अलग से विवरण आरम्भ नहीं किया गया है किन्तु गाथाकी रचना ही इसकी विभाषा है इस बातका कथन करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं * इस भाष्यगाथाका सूत्रप्रबन्ध ही विभाषा है । $ २४९. उक्त सूत्रका यह आशय है कि अत्यन्त गूढ़ अर्थवाले सूत्रके अर्थका निर्णय करने के लिए विभाषा की जाती है । किन्तु जहाँपर सूत्रप्रबन्ध ही स्पष्ट अर्थप्रबन्धरूपसे निबद्ध है वहाँ वही सूत्रप्रबन्ध व्याख्यानके समान होनेसे सुगम है इसलिए वहाँ व्याख्यानान्तर आरम्भ नहीं किया गया है, क्योंकि सुगम अर्थकी विभाषा करनेपर ग्रन्थकी गुरुताको छोड़कर फलविशेष नहीं पाया जाता। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा आनुपूर्वी संक्रमकी विषयभूत चार भाष्यगाथाओं की विभाषा करके अब मूलगाथाके तीसरे अर्थके विषयमें ही और भी कुछ अन्य विशेषताका ज्ञान कराते हुए आगेके गाथासूत्रको कहते हैं (८७) जो जीव जिस बध्यमान कममें संक्रम करता है वह नियमसे बन्धप्रकृतिमें ही संक्रम करता है, तथा बन्धस हीनतर बन्धस्थितियोंमें भी संक्रम करता है किन्तु बन्घसे अधिक सन्व स्थितिवाली प्रकृति में संक्रम नहीं करता || १४० ॥ $ २५०. यह पाँचवीं भाष्यगाथा बध्यमान प्रकृतियोंमें संक्रमित होनेवाली बँधनेवाली और
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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