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________________ खवगसेढीए विदियमूलगाहाए दशमभासगाहा २५३ माणाबन्द्रमाणपयडीणमेदेण सरूवेण संकमो होदि ति इममत्थविसेसं सत्थाणे उक्कड़णविहिं च जाणावेइ । तं कधं ? जो जीवो संसारावस्थाए वा खवगसेढीए वा वट्टमाणो जम्हि वज्झमाणपयडीए जं पदेसग्गमुक्कड्डियूण संछुहदि सो तम्हि चेव तं पदेसग्गमुक्कडिज्जमाणं कधं संछुहदि, किमविसेसेण सव्वासु द्विदीसु, आहो अस्थि को विसेसो ति पुच्छाए णियमा बंधसरिसम्हि संछहदि ति वृत्तं । एत्थ बंधग्गहणेण संपहिबंधस्स अग्गहिदी घेत्तव्वा, द्विदिबंधं पडि तिस्से चेव पहाणत्तदंसणादो। तेण बंधगहिदीए सरिसपमाणेण णिरुद्धपदेसग्गमुक्कड़ियण संछुहदि ति भणिदं होइ । एदमुक्कड़णासंकमं पहाणं कादण मणिदं । २५१. ण केवलं बंधद्विदीए चेव सरिसं कादणुक्कडदि, किंतु 'बंधेण हीणदरगे' एवं भणिदे बंधगहिदीदो समयूणादिहेडिमबंधगहिदीसु वि आबाहावाहिएसु हेहिमपदेसग्गं सत्थाणादो परत्थाणादो च उक्कड्डियूण संछुहदि त्ति वुत्तं होइ । 'अहिगे वा संकमो णत्थि' एवं भणिदे बंधगहिदीदो उवरिमासु संतद्विदीसु उक्कडणासंकमो पत्थि ति अत्थो गहेयव्वो। एत्थतण 'वा' सद्दो समुच्चयहो, तेण बंधादो हीणदरगे वि कहिं पि हिदिविसेसे उक्कडणासंकमो णत्थि त्ति वत्तव्वं, आबाहन्मंतरहिदीसु बंधपढमणिसेगादो हीणदरियासु उक्कड़णासंकमस्स अच्चंताभावेण पडिसिद्धत्तादो । तदो आवाहमुन्लंघियण बंधपढमणिसेगमादि कादण जाव णवकबंधचरिमट्ठिदि त्ति एदेसु नहीं बंधनेवाली प्रकृतियोंका इस रूपसे संक्रम होता है इस प्रकार इस अर्थविशेषका और स्वस्थानमें उत्कर्षणविधिका ज्ञान कराती है। शंका-वह कैसे ? समाधान-जो जीव संसार अवस्थामें अथवा क्षपकश्रेणिमें विद्यमान होकर जिस बध्यमान प्रकृतिमें जिस प्रदेशपुजको उत्कर्षण करके निक्षिप्त करता है वह उस बध्यमान प्रकृतिमें उत्कर्षित होनेवाले उस प्रदेशपुजको कैसे निक्षिप्त करता है, क्या सामान्यरूपसे सब स्थितियोंमें निक्षिप्त करता है या कोई विशेषता है ऐसी पृच्छा होनेपर नियमसे बन्धके समान स्थितियोंमें निक्षिप्त करता है यह कहा गया है । यहाँ बन्धपदके ग्रहण करनेसे वर्तमान बन्धकी अग्र स्थिति ग्रहण करनी चाहिये, क्योंकि स्थितिबन्धको अपेक्षा उसीकी प्रधानता देखी जाती है। इसलिये बन्धस्थितिके सदृश प्रमाणरूपसे विवक्षित प्रदेशपुजको उत्कर्षित करके निक्षिप्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यह उत्कर्षण संक्रमको प्रधान करके कहा है। ६२५१. केवल बन्धस्थितिको ही सदृश करके उत्कर्षण करता है ऐसा नहीं है, किन्तु 'बंधेण हीणदरगे' ऐसा कहनेपर बन्धस्थितिसे आबाधाबाह्य एक समय हीन आदि अधस्तन बन्धस्थितियोंमें भी स्वस्थान प्रकृतिमेंसे और परस्थान प्रकृतिमेंसे अधस्तन प्रदेशपुजका उत्कर्षण करके निक्षिप्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'अहिगे वा संकमो णत्थि' ऐसा कहनेपर बन्धस्थितिसे उपरिम सत्त्वस्थितियोंमें उत्कर्षण संक्रम नहीं होता यह अर्थ यहाँ ग्रहण करना चाहिये। यहाँ गाथामें आया हुआ 'वा' शब्द समुच्चयरूप अर्थमें आया है, इससे बन्धसे हीनतर स्थितिविशेषमें भी कहींपरं उत्कर्षण संक्रम नहीं होता ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि बन्धके प्रथम
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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