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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे १ २०१. तदो संजल - पुरिसवेदे मोत्तूण सेसासेसमोहपयडी ण बंधदित्ति एसो गाहापुव्वद्धे अत्थसमुच्चओ । तहा गाहापच्छद्धे वि असादावेदणीय - णीचागोद- अजसगितीओ सरीरेण सह बंधमागच्छमाणीओ सुहणामाओ च ण बंधदि ति एदेण सादावेदणीय-जसणित्ति-उच्चागोदाणि मोत्तूण सेसाणमघादिपयडीणं पसत्थापसत्थाणं बंधपडिसेहो समुद्दिट्ठो; अजस गित्तिणिद्द सेण सव्वेसिमसुहणामाणं पडि सेहसिद्धीदो । सारीरगणामणिह सेण च वेडव्वियसरीरादीणं सव्वेसिमेव सुहणामाणं जसगित्तिवज्जाणं बंधपडिसेहावलंबणादो । तदो जसगितिवज्जाओ सव्वाओ चेव णामपयडीओ सुहासुहाओ सरीरबंधसहगयत्तेण सारीरग-णामववएसारिहाओ असादावेदणीय - णीचागोदाणि च एसो ण बंधदित्ति गाहापच्छद्धे समुच्चयत्थो । उवरिमगाहासुत्ते 'अबंधगो' इदि पडिसेहणि सो अत्थि, सो एत्थ वि सिंहावलोयणण्णायेणाहिसंबंधणिज्जो, दोन्हं पि गाहासुत्ताणमवयवमावेण तस्स तत्थ णिद्दे सादो । संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणहं चुण्णिसुतयारो इदमाह– २३६ * एदाणि णियमा ण बंधइ । $ २०२. गाहासुत्तणिद्दिट्ठसव्वकम्माणि मणेणावहारिय एदाणि णियमा ण बंधदिति भणिदं । सेसं सुगमं । $ २०१. इसलिये संज्वलन कषाय और पुरुषवेदको छोड़कर शेष समस्त मोहनीय प्रकृतियाँ यहाँ नहीं बँधती है यह गाथा के पूर्वार्धका समुच्चयार्थ है । उसी प्रकार गाथाके उत्तरार्धमें भी बतलाया है कि असातावेदनीय, नीचगोत्र, अयशः कीर्ति और शरीर नामकर्मके साथ बन्धको प्राप्त होनेवाली नामकर्मसम्बन्धी शुभ प्रकृतियाँ यहाँ नहीं बँधती हैं । इस प्रकार इस कथन द्वारा सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रको छोड़कर अघातिकर्मसम्बन्धी शेष प्रशस्त और अप्रशस्त प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति निर्दिष्ट की गई है, क्योंकि अयशः कीर्तिका निर्देश किये जानेसे सभी अशुभ नामकर्म प्रकृतियोंका प्रतिषेध सिद्ध है और शरीर नामकर्मका निर्देश करनेसे यशः कीर्तिको छोड़कर वैक्रियिक शरीर आदि सभी शुभ प्रकृतियोंके बन्धका निषेध स्वीकार किया है । इसलिये यशःकीर्तिको छोड़कर जो शरीर नामकर्मके साथ प्राप्त हैं ऐसी नामकर्मसम्धी सभी शुभ और अशुभ प्रकृतियोंको तथा असातावेदनीय और नीचगोत्रको यह जीव नहीं बाँधता है इस प्रकार यह गाथाके उत्तरार्धका समुच्चयरूप अर्थ है । आगेके गाथासूत्र में ' अबंधगो' इस वचन द्वारा बन्धके निषेधका निर्देश किया है, अतः सिंहके अवलोकन न्यायके अनुसार उसका यहाँ भी सम्बन्ध कर लेना चाहिये, क्योंकि दोनों ही गाथासूत्रों के अवयवरूपसे उक्त पदका वहाँ निर्देश किया है । अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिये सूत्रकार इस सूत्रवचनको कहते हैं * उक्त गाथासूत्र में निर्दिष्ट की गई इन प्रकृतियोंको नियमसे नहीं बांधता है । $ २०२. गाथासूत्रमें निर्दिष्ट सब कर्मोंको मनसे अवधारण कर इन कर्मोंको नियमसे नहीं बाँधता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शेष कथन सुगम है । विशेषार्थ - प्रकृत भाष्यगाथामें असातावेदनीय, नीचगोत्र और अयश कीर्ति इन प्रकृतियोंका नाम लेकर इनका अबन्धक कहा है। इससे स्पष्ट है कि आगे इन तीनों प्रकृतियोंकी प्रतिपक्ष
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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